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Thursday 16 July 2020

पौधा रोपें! (कविता)

घास कथा


घास को देखकर कौन खुश नहीं होता? मनुष्य तो मनुष्य, जीव - जंतु, कीट - पतंगे सब खुश। कविवर अज्ञेय तो "हरी घास पर क्षण भर" बैठकर पुस्तक रच देते हैं। तुलसी बाबा तो हरियाली के फैलाव से डर भी जाते हैं - "हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पंथ!" चरवाहा भी बुग्यालों पर हरियाली देख नाच और गा उठता है। वृक्ष जितने भी घने हो मगर धरती की चूनर घास ही है, धरती को घास ने जितना ढँका है उतना कभी वृक्ष ढँक नही सकता। घास के प्रकार पर बात नही है, वह दूब हो या हो कास, कुश, नल या ईक्षु (गन्ना) या कुछ भी, स्थान भेद और काल भेद में नाम कुछ भी है, मगर घास सर्वव्यापी है, सर्वकालिक भी और सार्वभौमिक भी। जहां वृक्ष पहाड़ की ऊंचाई पर जाकर धराशाई हो जाते है वहां घास इठलाते हुए पत्थरों के सिर पर अपनी पताका फहरा देती है। जहां समुद्र का विस्तार है वहां भी अपने विविध रूप में खारे जल से मैत्री कर लेती है। घास का कुछ ठीक नहीं, वह किसी साधु के घने जटा जूट में भी उग सकती है।

गेहूँ के रूप में घास ही मानव को भोज्य सामग्री की बड़ी खेप उपलब्ध करवाती है, वही बांस के रूप में मानवीय आवश्यकता की आपूर्ति का अवलंब भी घास ही है। घास के जितने रूपभेद हैं उतने ही नामभेद भी। घास के नाम तृण है, चारा है, अर्जुन है, ताण्डव है, शष्प है, खड़ है। खट भी। इधर भील जनजाति घास को आज भी खड़ ही कहती हैं। "घास लेकर आ रहा हूँ " का भीली अनुवाद यूं होगा - "खड़ ली न आवी रियो!" 

घास जैसी महत्वपूर्ण चीज जिसका न आदि है न अंत। ऐसी वस्तु को भी आदमी ने मुहावरे में याद किया तो अपमानित करके। 'घास खोदना' का भाव बेकार का काम करना जैसे लिया जाने लगा जैसे झख मारना। 'घास डालना' मुहावरा जरूर आशान्वित करता है मगर 'घास काटना' भी काम को टालते हुए निपटाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। जैसे घास घास न हुई गरीब की भौजाई हो गई। 

कुल मिलाकर घास को देखकर सब खुश होते हैं पर एक ऐसा जीव है जो घास को देखकर दुखी होता है। (जिसे आजकल की शब्दावली में खरपतवार कहा जाने लगा है,) वह है किसान। किसान के दुखी होने का कारण भी है, इस घास की समय पर न निंदाई की जाय तो फसल को चौपट कर देने का श्रेय भी खुद माथे न लेगी और किसान को लंबा कर देगी। चौमासा प्रारंभ होते ही पहली समस्या घास होती है। फसल में घास ने अपना मजमा जमा लिया तो समझिए किसान कंगाल। खेत में बढ़ती घास देखकर किसान का जी धक्क से रह जाता है। यदि पानी चार, छः दिन बरसता रहे और खेत पर काम न हो पाए तो किसान की नानी मर जाती है। संसार में जितनी जनसंख्या घास को देखकर खुश होती है लगभग उतनी ही आबादी दुखी भी होती है, मगर दुखी होने वाला किसान नामक यह जीव दुख में भी सुख मना लेता है। हरियाली से उसका भी मन हरिया जाता है, हरियाली को देखकर कौन किसान है जो अपने लोक गीतों को न गाने लगे? हर देश, प्रांत, अंचल के लोक गीतों में किसान के रोपाई, निंदाई और कटाई गीत मिल जाएंगे। 

हमारे यहां तो वेदो से लेकर पुराण और महाकाव्यों में घास की महिमा बखानी गई है। ''अश्वायेव तिष्ठते घासमस्मै। (यजुर्वेद ११/७५) ब्रह्मवैवर्तपुराण में "भुवः पर्यटने यत्तु, सत्यवाक्येषु यद्भवेत्। तत् पुण्यम् लभते प्राज्ञो गोभ्यो दत्वा तृणानि च।" कहकर तृण से कमाए पुण्य का वर्णन है। ऐसा नही कि घास को केवल पशुओं के खिलाने और संबंधित पुण्य का वर्णन ही पुरासाहित्य में मिलता है। घास माध्यम के रूप में भी चर्चित रही है, वाल्मीकि रामायण में सीता रावण से चर्चा करने में घास के तृण को बीच में रखती हैं -" तृणमन्त रतः कृत्वा प्रत्युवाच शुचिस्मिता।५/२१/३) घास की महिमा वर्णन में पुराणकार दस महत्वपूर्ण घास के विविध रूपों का सम्मान के साथ वर्णन करते हैं -" कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:। गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।" कुश नामक घास को उखाड़ने से पूर्व क्षमा याचना हमारी संस्कृति के उच्चादर्श को प्रदर्शित करता है। प्राच्यसाहित्य तो इस बात का निर्देश भी करता है कि मनुष्य सीधे मूत्र त्याग पृथ्वी पर न करे, घास से युक्त भूमि पर करे। आज जरूर यह मजाक लगेगा लेकिन यह सब हमारी विराट संस्कृति का अंग रहा है। श्रीगणेश जी की पूजा बगैर दूब घास के संभव नहीं। 

महाराणा को तो घास की रोटी भी बच्चों को खिलानी पड़ी है लेकिन अपने मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया। इसीलिए कवि को कहना पड़ा - "अरे घास की रोटी ही जद बन विलावड़ो ले भाग्यो।" घास को लेकर गधे और बाघ का किस्सा भी रोचक है। गधे ने कहा धरती पर उगने वाली घास का रंग नीला है, बाघ ने कहा हरा है, विवाद बढ़ गया तब जंगल के राजा के पास विवाद निपटान के लिए पहुंचा, शेर ने दोनों का पक्ष सुना और बाघ को सजा दे दी। सभी आश्चर्य चकित कि यह कैसा न्याय? जब पूरा जंगल जानता है घास हरी है तो फिर राजा की मति मारी गई है क्या? शेर से पूछा यह कैसा न्याय है? शेर ने कहा घास के रंग के लिए सजा नही दी गई, सजा तो बाघ को इस मूर्ख जीव से बतंगड़ करने के लिए दी गई है। 

घास हमारे ही साहित्य में है ऐसा नहीं है, पूरे विश्व साहित्य में घास का वर्णन मिलेगा। यहां चीन की एक लोककथा को उद्धृत करना चाहूंगा - चीन में यांगत्सी नदी के किनारे तीन राज्य थे वेई, वू और शू। वेई बड़ा था और साम्राज्य विस्तार का लोभी भी, चीन का सच्चा प्रतिनिधित्व करता था वेई। वू और शू की दोस्ती थी लेकिन कमजोर थे। एक दिन अचानक वू के राजा को सूचना मिली कि वेई की सेना ने वू को घेरने के लिए सेना भेज दी। वू की तैयारी नही थी, युद्ध में दस दिन बाकी थे, युद्ध सामग्री नही थी, तैयारी में समय ज्यादा चाहिए था। संयोग से शू का राजा वू के राज्य में आया हुआ था। वू राजा ने समस्या बताई तब शू के राजा ने कहा निश्चिंत रहो एक लाख तीरों की व्यवस्था मैं कर दूंगा। वू और घबरा गया कि शू राज्य से तीर आने में तो और ज्यादा समय लग जाएगा। शू ने कहा चिंता नको! आखिरी दिन यांगत्सी के तट पर वेई की सेना ने मोर्चा लगा दिया, तीर आए नही। शाम हो गई, अगली सुबह युद्ध होगा और वू की पराजय निश्चित है। शू के राजा ने अमावस की उस अँधेरी रात को वू के राजा को बुलवा कर कहा बीस नावों पर घास के पुतले रख दो और बेड़ा बनाकर रणभेरी के लिए डुग्गियां रख कर मुझे दो। शू का राजा उस बेड़े को लेकर यांगत्सी के पार दुश्मन के शिविर के पास ले जाकर खड़ा हो गया, घनी कोहरे वाली रात थी, उसने जोर से रणभेरी बजा दी, वेई की सेना अचानक शत्रु के सिर पर आ खड़े होने से घबरा गई। चूंकि सेना नदी में थी इसलिए शस्त्र युद्ध संभव नहीं था, इसलिये धनुष बाण से ही वू की सेना पर अँधेरे में तीर चलाना प्रारंभ किया। घास ने लगभग एक लाख तीर अपने में एकत्रित कर लिए और बेड़ा लेकर शू का राजा वू के पास पहुंच गया। घास ने एक लाख तीर वू को देते हुए वेई को तीर विहीन कर दिया था। घास के बने काकभगोड़े भी खेतों की रखवाली करते ही है। 

किसान जितना घास से डरता है उतना ही उसे प्यार भी करता है, जहां घास नही उगती ऐसी ऊसर जगह को किसान छोड़ जाते हैं। घास ही तो धरती की उर्वरता का मानक है।

(नोट :- लेख प्रकाशनाधीन है इसलिए इसकी चोरी का दुस्साहस अपनी रिस्क पर करें। शेयर करने के लिए स्वागत है।)

Tuesday 14 July 2020

स्वतंत्रता और वामपंथ

कुछ वामपंथी लोग अभी भारत चीन मामले में कुछ ज्यादा ही तनाव में लग रहे हैं। वे निरंतर सरकार पर प्रश्नों की झड़ी लगाकर उत्तर चाहते हैं। उनकी चिन्ता देश के लिए कम और चीन के लिए ज्यादा लग रही है। वे बार बार सरकार पर तीखे हमले कर भीतर से मारने के लिए प्रयासरत हैं। वे आम लोगों के मस्तिष्क में एक 'बू' भरने के लिए निरंतर लगे हुए हैं। उनके कथन कुछ यों होते हैं - 'भारत ने सभी पड़ोसी देशों के साथ गलत नीति रखी। परिणामस्वरूप भारत से सब नाराज हैं।'

मुझे लगता है कि देशों के मामले में कोई चरम स्थिति कुछ भी नहीं होती। न विकास अंतिम, न शक्ति अंतिम, न सत्ता अंतिम, न स्वतंत्रता अंतिम, न समानता अंतिम और न बंधुत्व अंतिम होता है। यदि ऐसा होता तो सर्वोच्च सर्वेसर्वा अमेरिका आज परेशान होता? कल जबकि अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस था फिर भी प्रदर्शनकारी किसी न किसी बहाने झंडे डंडे लेकर उतर गए... सड़कों पर। यह देख मुझे लगा कि किसी भी देश की चरम स्थिति का कोई तय बिन्दु नही है। मैं एक पोस्ट लिखकर चाहता हूँ कि उसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें, तो फिर संसार के इतने देशों के इतने अरब लोगों की इच्छा और आवश्यकता का अंत कहाँ? कौन है जो कल सब कुछ ठीक के लिए आश्वस्त होगा?

अमेरिका जैसा देश जो स्वतंत्रता के लिए हमारे प्रथम - स्वतंत्रता संग्राम से भी पौन सदी पहले लड़ा और जीता। आज ढाई सौ वर्ष की स्वतंत्रता जी चुकने के बाद अब समानता के संघर्ष से परेशान है। जबकि मेरा मानना है कि स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी ही रहेगी। जहाँ स्वतंत्रता होगी वहाँ समानता कैसे संभव है? जब तक अनुशासित स्वतंत्रता नही होती तब तक समानता नही हो सकती। अनुशासन है तो फिर स्वतंत्रता बाधित है।

ईश्वर ने संसार के सभी लोगों को समान क्यों नहीं बनाया? यदि ईश्वर संसार को समान बनाना चाहता तो मनुष्य की मुखाकृति में ही समानता रख देता। (जो ईश्वर को नही मानते वे ईश्वर की जगह प्रकृति पढ़ें) उंगलियों के निशान समान होते। लेकिन समानता प्रकृति का साध्य नही है। एक हाथ में पांच उंगलियाँ समान नही है, एक परिवार में सबके अधिकार और कर्तव्य समान नही है। तो विशाल विश्व में समानता की आशा करना ढोंग से अधिक कुछ नहीं।

जिन देशों में समानता का अधिकार कानून मुहैया करवाता है क्या वहाँ राष्ट्रपति से लेकर चपरासी की तनख्वाह समान है? कानून की नजर में सब बराबर कहने वाली सूक्ति के नीचे एक ही तरह के अपराध के लिए कोई सजा भोगता है और कोई छूट कर भाग निकलता है 'नो वन कील्ड जेसिका!'

समानता का मतलब 'सरकार सभी को मुफ्त भोजन दे दिया करे' होगा तो अन्न का उत्पादन कौन करेगा और क्यों करेगा? यदि अधिक पैसा कमाने की लालसा ही न होगी तो आदमी दिन-रात खटेगा क्यों? दारू पीकर सड़कों पर पड़े रहने का ही सुख वह भी उठाए! यदि लोकतंत्र का तात्पर्य वोट के बदले मुफ्तखोरी है तो उस राष्ट्र को शीघ्र पराधीन होने से कोई नही रोक सकता। क्रूर और तानाशाही व्यवस्थाएँ ऐसे देश को लील लेती है।

संतुष्ट कोई नहीं है। कल ही अमेरिका के बारे में मित्र ने चर्चा करते हुए बताया कि अमेरिका कानून माफिया से त्रस्त है तो भारत अपराध माफिया से त्रस्त है। व्यवस्था यदि जनचेतना में नही है तो फिर परेशान होना ही पड़ेगा। हर आदमी सुविधा के लिए लालायित है। हर बड़ी सुविधा के लिए उसके स्वप्न समाप्त नही होते। जिसे सबकुछ मिल चुका होता है वह भी आत्महत्या कर रहा है तो फिर अंतिम सत्य क्या?

कुछ लोग भारत की चिन्ता को लेकर आशंका प्रकट करते हैं कि संसार के कोई देश उसका साथ नही देंगे! अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, आस्ट्रेलिया आदि कोई नहीं। बिलकुल हो सकता है कि कोई साथ न दे। हर आदमी अपना लाभ पहले देखता है तो फिर देश बेवकूफ़ लोगों का दड़बा थोड़ी होता है! लेकिन क्या हमें अपने हक के लिए संघर्ष नही करना चाहिए? दूसरा हमें धोखा देगा यह सोचकर घर बैठे रहने से तो लोग अर्थी को काँधा भी नहीं देते। स्वतंत्रता, समानता ये सब दार्शनिक चोंचले हैं। हमें अपने देश और अपने कर्तव्य पर अडिग रहकर ही जो लभ्य होगा वह मिल सकता है। बगैर न्यौता दिये शत्रु यदि घर का दरवाजा तोड़ने खड़ा हो तो परिवार में एक दूसरे पर आरोप करना केवल मूर्खता नही धूर्तता भी कहलाता है। धूर्तता से भरे मूर्ख लोगों को विश्व सम्मान नही देता।

कोरोना की दवा

रात मुझे सपना आया कि चीन की वायरसोलॉजी लेब ने कोरोना की दवा और वेक्सिन दोनों बना लिए। लेकिन दवा बनाने के लिए उपलब्ध कच्चा माल कम था, चूंकि टेस्टिंग के दौरान चीनी वैज्ञानिकों ने खुद पर टेस्ट में खर्च कर दिया था इसलिए अधिक दवा बनने के निकट भविष्य में कोई चांस नही थे। इसलिए परोपकार की दृष्टि से चीन ने उन डेढ़ दो सौ डोज़ के लिए विज्ञप्ति निकाली, कि विश्व के जिन महत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक है उन्हें ही इसका लाभ दिया जाए!

पहले तो चीन में ही घमासान मचा कि इस दवा को चीन किसी और को क्यों दे? अपने ही देश के वीआईपी को ही मुहैय्या क्यों न किया जाए?

विरोध के सुर चीन में थे तो सही लेकिन टीवी, मीडिया पर बोलने को कोई तैयार नहीं। अभी अभी गलवान घुसपैठ में चीन के सैनिक मारे जाने के बाद भी जब सरकार ने उनके नाम घोषित न किए तो, चीनी जनता समझ गई कि आम लोगों का हश्र क्या होगा? इसलिए वहाँ का मीडिया तू बोल, तू बोल के चक्कर में हिचकोले खाता रहा। अब वहाँ रवीश कुमार जैसा कोई आत्मघाती मानव बम पत्रकार भी नहीं जन्मा इसलिए टीवी मीडिया एक दूसरे को कोसने लगा। द चाइनीज नामक चैनल द चाइनीज़ टेलीग्राफ चैनल पर आरोप लगा रहा था कि तूने अर्नब पैदा किया और सामने वाला प्रत्यारोप कर रहा था कि तूने रजत शर्मा पैदा किया। सब रवीश कुमार की कमी अनुभव कर रहे थे।

हर मामले की तरह चीनी अवाम का मत न जिनपिंग को पूछना था और न पूछा गया। जिनपिंग ने उसे विश्व के अति विशिष्ट लोगों के लिए दान करने का मन बना लिया।

जैसे ही भारतीय कम्युनिस्टों को पता चला कि जिनपिंग महोदय ने उक्त कोरोना दवा दान करने का विचार किया है भारतीय मीडिया में जिनपिंग की उत्पति की संभावना से लेकर उनकी आने वाली दस पीढ़ियों के निमित्तार्थ लेख प्रकाशित किए। जेएनयू में कार्यशालाएँ आयोजित होने लगी। साथ ही इस महात्याग के लिए जिनपिंग जी को अग्रिम नोबल पुरस्कार न देने के लिए लानत भेजने हेतु निंदा प्रस्ताव पारित करने की झड़ी लग गई। चूंकि विश्व में मार्क्स-माओवाद समाप्त होकर शेष भारत में ही है इसलिए भारतीय कम्युनिस्टों पर निंदा का वैश्विक भार भी था।

चीन ने घोषित किया कि आगामी निकट भविष्य में दवा की संभावना कम है और विश्व के प्रमुख राष्ट्राध्यक्ष भी कोरोना ग्रसित हो चुके हैं इसलिए प्रारंभ में उन्हें ही यह डोज दिया जाए। राष्ट्राध्यक्ष रहेंगे तो पब्लिक फिर पैदा हो सकती है। यदि राष्ट्राध्यक्ष ही नहीं रहे तो पब्लिक का होना न होना बराबर है।

उन्होंने एक सेम्पल अमेरिका भेजा, एक यूके, एक आस्ट्रेलिया, एक न्यूजीलैंड और इस तरह सभी को एक एक भेज दिया। सभी राष्ट्राध्यक्षों की डाक पहुंच पावती चीन वापस पहुँच भी गई।

सभी राष्ट्राध्यक्षों ने आपस में फोन कर एक दूसरे के विचार जाने और सर्वानुमति से निर्णय लिया कि इस दवा का ट्राई केवल पाकिस्तान के इमरान खान के अलावा कोई न करे, लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखे कि इस दवा के विनष्टीकरण के लिए न जमीन में गाड़ा जाय, न समुद्र में फेंका जाय, न अंतरिक्ष में छोड़ा जाए। क्योंकि यह हर जगह घातक ही रहेगा। चीन यदि दान भी दे रहा है तो मानकर चला जाए कि वह सभी राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों को एक साथ मारकर संसार पर राज करने के अलावा सोच ही नहीं सकता इसलिए कोई इसका उपयोग न करे।

लेकिन आखिर इमरान खान के उपयोग पर रोक क्यों न लगाई जाए कुछ राजनेता पूछ लिए तब इटली के समझदार प्रधानमंत्री ने कहा कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री का होना न होना बराबर है!

मगर मोदीजी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के इस टीके को लगाए जाने का विरोध किया, सब ने कहा कि मोदीजी आपकी तो जाति दुश्मनी है आप क्यों मना कर रहे हैं? मोदी जी ने कहा कि मेरी किसी पाकिस्तानी से दुश्मनी नही है मेरी तो पाकिस्तानियत से दुश्मनी है लेकिन चीन का कतई भरोसा नहीं वह फिर कोई कोरोना का भाई रोरोना वायरस भेज कर पाकिस्तान में इंजेक्ट कर देगा तो भारत और इरान सबसे निकट पड़ोसी मुफ्त में निपट जाने का खतरा सबसे पहले हम पर ही होगा, इसलिए कृपा करके वहाँ भी प्रयोग न करे।

चूंकि भारतीय कम्युनिस्टों को पता था ही, इसलिए उन्होंने चीन पर अगाध निष्ठा और विश्वास जताते हुए अपने किसी युवा का नाम भेजा है! जिसे उस टीके की सबसे पहले जरूरत है, जिस युवा पर भारतीय कम्युनिस्टों की आशा टिकी हुई है! मैंने खूब खोजबीन की लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट उस युवा का नाम चीन भेजे जाने की सूची को पार्टी हित में जारी नही कर रहे थे और इसी हलचल में मेरा सपना टूट गया।

भद्रदारू

#भद्रदारू
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चीड़! यह नाम सुनकर मन में एक अलग ही अनुभूति होती है। छितराए जटा जूट का एक निस्पृह योगी, जिसे किसी से कोई सरोकार नहीं है। न घने पत्ते जिसकी छाह, न चिकना तना जिसके सुकोमल स्पर्श का सुख मिले। अपने वृन्त से हरित किरणों की तरह लगी पत्तियाँ जो न पत्ती कही जा सकती है न शाखा ऐसी कठोर। लगता है आशुतोष शिव का स्थावर स्वरूप पाकर खड़ा 'मसान-जोगी'! जिसके निकट खड़े रहने का साहस कोई समतुल्य वृक्ष करता नहीं, न करना चाहता या करने देता। औघड़ लोगों के साथ ऐसा ही होता है। भद्रदारू वृक्षों का औघड़ है।

इस भद्रदारू को देखकर गंगावतरण का सचित्र रूप सामने आ जाता है। जैसे शिव के उत्तुंग होकर त्रिपथगा गंगा को अपने जटाजूट में धारण कर उसे धीमे धीमे पृथ्वीवासियों के हितार्थ धराधाम पर प्रवहमान करना भगीरथ की तपस्या का परिणाम था। वैसे ही यह भद्रदारू भी शीतकालीन तुषार के कणों को शिव सदृश अपने छितराए जटाजूट जैसे पत्तों पर धारण कर तुषारगंगा को शनैः शनैः प्रवाहित करता रहता है। ताकि गंगा की अविरल धारा बहती भी रहे और केदार जैसी त्रासद स्थितियों से मानवता बची भी रहे। इस परिकल्पना में मुझे भद्रदारू और देवदारू साक्षात शिव दिखाई पड़ते हैं। 

चीड़ को चीड़ नाम देकर किसी ने चीड़ के साथ अपनी चिड़ निकाली है। चीड़ नाम भी ऐसा चला कि जैसे यह मध्यकालीन मुगलों की तरह अचानक भारत में घुसकर पहाड़ों पर अपना राज जमा गया हो और हिमालय के वृक्षों को पदच्युत कर दिया हो! कुछ इसी प्रकार चीड़ को चिड़ नाम देकर सुशोभित किया। कहते हैं मोहम्मद बिन तुगलक चमड़े के सिक्के चलाने का आविष्कारी बादशाह था लेकिन उसे इतिहास में सनकी बादशाह कहकर याद किया गया। वरना भारतीय संस्कृति में तो चीड़ को ससम्मान 'भद्रदारू' नाम देकर उसकी प्रशंसा हुई है। चीड़ को 'पीत-द्रुम' के रूप में 'पितद्रु' भी कहा गया। अब इतने सुन्दर नाम हो उसे चीड़ कहकर अपमानित करने का क्या प्रयोजन है?

अर्वाचीन लेखकों में निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चाँदनी' पुस्तक में चीड़ को स्मरण करते हैं, भद्रदारू नाम की उपेक्षा कर देते हैं। कविता संग्रह "बोलने दो चीड़ को" में नरेश मेहता जी पितद्रु को भूलते हैं। कवि गौतम राजऋषि चीड़ को अपने सैनिक पेशे से देखते हुए "चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से। गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से।" कह देते हैं लेकिन चीड़ अपने भद्र नाम से विस्मृत होता जाता है। जिसका इतना सुन्दर नाम पुरखों ने रखा हो और उसे इस प्रकार पुकारा जाए तो मन में टीस उठती है, लेकिन यह भद्रदारू नामक मुनी महाराज सांसारिक राग द्वेष से मुक्त वैसे ही सबको देखता और असीसता रहता है।

संभवतः भद्रदारू को देखकर ही हमारी भारतीय मनीषा में अर्धनारीश्वर रूप की यदि कल्पना हुई हो तो वह सार्थक है, वरन श्रीमहादेव का पार्वती के साथ अर्धनारीश्वर रूप इस वृक्ष के निर्माण में प्रेरक रहा होगा। अधिकतर पादपों में पुंकेसर और स्त्रीकेसर एक ही पुष्प में विद्यमान होते हैं, परन्तु भद्रदारू में नर पुष्प अलग और मादा पुष्प अलग होते हैं। इसके अनावृतबीजी फल की व्याख्या कोई वनस्पति विज्ञानी करे तो वह सार्थक हो लेकिन सामान्य तौर पर हम जिन आवृत्तबीजी फलों का खाद्य में प्रयोग करते हैं वैसा नहीं है। इसके नरपुष्पों से पराग विकीर्ण होने के समय निकलने वाला पीतवर्णी धूम्र ही लगता है इसके पीतद्रुम या पितद्रु नाम को सार्थक करता है, हो सकता है पहाड़ों पर गंधक के खनिज स्रोतों को खींच कर अपने में समेट लेता हो और अपने उन्माद के समय वह हुरियारे की तरह पीत रंग की होली खेलने आतुर हो उठता हो।

भद्रदारू की तैलीय प्रकृति इसकी महीन तिनकों जैसी पत्तियों में भी पाई जाती है जो किसी चिन्गारी को बहुत सरलता से पकड़ कर पहाड़ी वनों में भयावह क्षति का कारण बनती है। लोग इसे चीड़ की गलती बताते हैं। यदि चीड़ में तैल न हो तो वह आग नही पकड़ेगा और जंगल नही जलेंगे। मनुष्य खुद अपने कुकर्म को किसी दूसरे पर ढोलकर कितना सयाना बन जाता है यह इस प्रसंग में देखा जा सकता है। उसी भद्रदारू के तनों को चीरा लगाकर द्रव प्राप्त करना हो तो उसके तैलीय गुण लाभकारी और पत्तियों के तैलीय होने से आग पकड़ ले तो हानिकारक! वाह रे मनुष्य तेरी महिमा तो अवर्णनीय है ईश्वर भी गुणगान न कर सके।

भद्रदारू जहाँ खड़ा होता है वहाँ अन्य वृक्ष पनप नहीं पाते हैं। लेकिन यह गुण तो वट-वृक्ष में भी है, उसकी छाया में भी दूसरा कोई पनप नहीं पाता। फिर वट-वृक्ष के प्रति भारतीय संस्कृति में श्रद्धा-भाव और इसके बारे में वर्तमान काल में एक उपेक्षा-भाव रखा जाना किसी षड्यंत्र का कारण तो नहीं है? मुझे तो लगता है कि चीड़ को लेकर लकड़ी-माफिया इस प्रकार की गलत हवा फैलाकर लोगों के मन में वहम भर देता है और फिर पहाड़ी जंगलों का सफाया करने में स्थानीय प्रतिरोध को इस प्रकार एक ठंडा कर देते हैं। अब कितनी ही अमृतादेवी बिश्नोइयाँ और सुन्दरलाल बहुगुणा अकेले वृक्षों से चिपकते रहें और अपना झुनझुना बजाते रहें। जब चीड़ वृक्ष से सारे लाभ प्राप्त करना हो तो कोई अंग शेष नहीं छोड़ा जाता लेकिन काटने के बाद जब उन्ही नग्न पहाड़ों को आवृत्त करने की बात आती है तो बड़ी योजनाएँ ही बनती रहती है। जबतक वृक्षों के प्रति जनमानस में प्रेम नही उपजता कितनी ही सरकारी योजनाएँ बनती रहे वृक्ष बड़ा नही हो सकता। कोई बाहरी व्यक्ति पौधा लगाकर कितने दिन उसकी सेवा कर सकता है? वह उधर गया और इधर बकरी चट कर जाती है। फिर अगले वर्ष खाली जमीन पर अगली योजना बनने के लिये कटे हुए वृक्ष की लुगदी का कागज भी समर्पित हो जाता है। वृक्ष कागजों पर भी मरता है और कागजों के लिए भी मरता है! कह सकते हैं वृक्ष की कागजों के लिए, कागज द्वारा, कागजी मुद्रा (तनख्वाह) पाने के लिए हत्या। 

भद्रदारू को देखकर ही भारत के घुमक्कड़ लोग जगह के एल्टिट्यूड (समुद्र तल से ऊंचाई) का अनुमान लगा लेते हैं! भद्रदारू जहाँ दिखना प्रारंभ हुआ कि लोग समझ लेते हैं समुद्र तल से हजार मीटर ऊंचे स्थान पर पहुँच चुके है। लेकिन ऐसा केवल भारत में है। प्रस्तुत फोटो मैंने समुद्र किनारे रैरिटन खाड़ी पर लिया है। अस्सी मीटर ऊँचे भद्रदारू मिलते हैं वहाँ इसकी ऊँचाई केवल तीन मीटर है और उस पर जो हाथ में फल है वह स्त्रीकेसर है। जब फल कठोर होकर वृक्ष से टूट जाता है हमारे देश में इसे सजावट के रूप में पहाड़ों की मुफ्त याद की तरह ड्राइंग रूम में सजाते हैं। मेरी श्रीमतीजी इसके आकार में नाग आकृतियों का वलय देखकर नागफण कहती हैं। गाँव की महिलाएँ आपस में इसके बारे में एक चर्चा करते हुए मिथक भी गढ़ लेती है कि यह जहँ रखा हो वहाँ सर्प नही आते। अरे भाई सर्प बेकार में इधर उधर नही भटकते वे जहाँ चूहे अधिक हो वही पीछे पीछे पहुँच जाते हैं और कुछ नहीं।

पहाड़ों पर देवदारू यदि देवदारू है तो बाँज (शाहबलूत या ओक) को मैं स्वस्तिदारू कहना पसंद करूँगा। चीड़ तो भद्रदारू है ही। तो आप जब भी किसी पहाड़ की ओर जाएँ और आपको यह पेड़ मिल जाए तो एकबार भद्रदारू नाम स्मरण कर लीजियेगा, बड़ा सुन्दर और शुभ नाम है।
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कुछ पहाड़ी जनजीवन का मानना है कि भद्रदारू को अंग्रेज लाए थे, उस परिप्रेक्ष्य में बताना चाहूँगा कि नैनिताल के पास रानीबाग में कोनीफर चीड़ की प्रजाति के पचहत्तर लाख के लगभग पुराने वृक्षजीवाश्म इसके स्थानीय होने की पुष्टि करते हैं!)

Wednesday 8 July 2020

ताप्ती नदी

#ताप्ती_नदी #जन्मोत्सव

मनुष्य का खुद के जन्म का पता नहीं होता और नदी के जन्म का दिन मनाने लग जाता है। यह खोज नदी के प्रति मनुष्य की स्वयं की आस्था है या कुछ और! कुछ भी हो मगर मनुष्य स्वयं का उत्स प्रकृति में खोजने की निरंतर चाहना लिए होता है। जिसके प्रमाण है हर धर्म के अपने आख्यानों में वर्णित वे कथानक जो कही न कही मनुष्य का अस्तित्व नदी, पहाड़, समुद्र आदि से जोड़ने का उपक्रम करते हैं।

आज ताप्ती नदी का जन्मदिन है, आषाढ़ शुक्ल सप्तमी को म. प्र., महाराष्ट्र और गुजरात ताप्ती नदी का जन्मोत्सव मनाते हैं अज्ञात काल से। वेगड़ जी लिखते हैं - "संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है।" इस आधार पर किसी भी नदी की क्रोढ़ में बसी जनता की जीवनदायिनी शक्ति नदी ही होती है फिर वह जनता क्यों न अपनी शक्ति के प्रति आस्था से संपृक्त हो?

ताप्ती नदी का उद्गम म. प्र. का मूलताप्ती या मुलताई है। जो बैतूल जिले में है। सूर्यपुत्री ताप्ती का जन्म सूर्य के आँसुओं से हुआ कहा जाता है। मेरे जिले से निकलने वाली नदी 'माही' भी सूर्यपुत्री है और यमुना भी सूर्यपुत्री। तीन बहने, मगर मां अलग। 

गंगा और यमुना तो पृथ्वी पर बाद में अवतरित हुई, मगर नर्मदा इनसे सीनियर है और नर्मदा से भी सीनियर है ताप्ती। यमुना सप्ताह भर आराधना करने पर पुण्य देती है, गंगा स्पर्श करने पर पावन करती है, नर्मदा तो दर्शन मात्र से पवित्र कर देती है मगर ताप्ती के बारे में विख्यात है कि वह स्मरण मात्र से पातक धो देती है। भगीरथ के तप के बाद गंगावतरण की बात आई तब गंगा जी ने मृत्युलोक में ताप्ती की महिमा को देखते हुए आने से मना कर दिया। भगवान शिव ने नारद जी को ताप्ती की महिमा हर लेने का आदेश दिया। (मीडिया का काम ही है किसी को भी महिमामंडित कर दे या अच्छे भले को धूल चटा दे) नारद जी ने ताप्ती की तपस्या की, ताप्ती के प्रसन्न होने पर नारद जी ने उनसे उनकी महिमा मांग ली। ताप्ती ने तथास्तु कह दिया मगर छल का दंड तो भुगतना ही था, नारद जी को शरीर पर श्वेत कुष्ठ रोग हो गया। नारद जी दौड़े दौड़े ब्रह्मा जी के पास गए, लेकिन वे तपस्या में लीन। फिर भोलेनाथ के पास गए, तब उन्होंने भी कहा कि जिसने दर्द दिया है दवा भी उसी की। नारद जी लौट कर ताप्ती के पास आए, (जहां टिंबा नामक गांव, तहसील कामरेज जिला सूरत) टिंबा गांव के पास ताप्ती के किनारे तप किया, गल्तेश्वर शिव की आराधना की और रोग मुक्त हुए। 

दुर्वासा ऋषि का आश्रम ताप्ती नदी समुद्र संगम पर था जो अब डुमस नामक गांव के नाम से जाना जाता है। महर्षि नारद के द्वारा ताप्ती की महिमा हर लेने के कारण ताप्ती का प्रभाव कम हुआ है पर पुण्यत्व प्रदान करने में वह पीछे नहीं है। सच पूछा जाए तो नदियों ने तो दिया ही है, नदियां दात्री ही नहीं धात्री भी हैं। दोषी तो हम हैं जो नदियों का जल पीकर भी अघा नही रहे हैं, हम सबका कुंभज होना ही सबसे बड़ा पाप है जिसका प्रायश्चित भी उन नदियों के ऊपर ही रख छोड़ा हुआ है। 

ताप्ती का विवाह चंद्रवंशी नरेश संवरण के साथ हुआ वर्णित है। पुराणों की कथाओं का हम समझदार लोग प्रायः मजाक उड़ाते है मगर इन मिथकों ने जीवन की कितनी ही गुत्थियों को सुलझाने का काम किया है।

अब मैं ताप्ती की दूसरी विशेषता पर आता हूँ। ताप्ती समुद्र के साथ संगम करते हुए डेल्टा नही बनाती। वह एश्चुअरी बनाती है। यानी ज्वारनदीमुख। ताप्ती सीधे समुद्र में मिलती है, इसलिए यहां से खाड़ी देशों में जहाज चलते रहे हैं। समुद्र का ज्वार ताप्ती का सील्ट लेकर अपने भीतर समो लेता है। समुद्री जल और ताप्ती के मीठे जल के सम्मिश्रण में कई जीव जंतु और वनस्पतियां पनपती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। ज्वारनदीमुख का बड़ा उदाहरण ताप्ती के साथ नर्मदा और हडसन नदी भी है। नर्मदा का ज्वारनदीमुख देख लिया मगर ताप्ती के संगम को देखना बाकी है। ताप्ती संगम पर तो सूरत और हजीरा में सुविधा भी बहुत है। जरूर यह सौभाग्य भी कभी मिलेगा। लेकिन अब मां ताप्ती का पुण्य स्मरण करते हुए कथा को आज समाप्त करता हूँ। मां ताप्ती सबके ताप हरना और हमारे अपराध क्षमा करना, समूची मानवता प्रकृति दोहन की अति में अपराधी बन चुकी है।

Friday 21 April 2017

प्रेम का उत्ताप

अपनी सीमाओं में ही सही,
सूरज पास आता है
धरती पर ताप
बढ़ जाता है।

वैशाखी दुपहरी में
हमारा हाहाकार
सूरज को सिर पर उठाता सा।

कभी सूरज को धरती के पास
आने पर कितनी ठंडक मिलती है?
यह भी चिन्हना
किसी विरही के पास बैठकर।

- गजेन्द्र पाटीदार

Thursday 20 April 2017

सूरज पर कब्जा

लोहार यूं ही चिल्लाता रहा
लोहे की तपन।
लोहे को ऐंठ देने की कला पर
ऐंठता रहा!
घोड़ा
जुगाली करते हुए
लगाम को उगालता रहा।
भले उसकी हर कोशिश बेमानी थी।
मैं उलझता रहा लगाम की जुगाली पर।

खुरों में नाल ठुकने के
दर्द पर मेरा ध्यान ही नहीं गया!
मुझे तो बस उसे
विजेता दौड़ के लिए
हांकना था।
जो खुरों और नाल के बीच
उलझी हुई थी!

खुरों में ठुँकती कीलों की नोक
और
लोहारिन के खून से रिसते लोहे की,
कमी से चुभती कीलों का
दर्द वैसा ही था!

इसके बावजूद ऐंठ जारी है,
भट्टी और धौकनी के बल पर
सूरज को कब्जाने की
कोशिश में
नए तर्क गढ़े जा रहे हैं
कि हमारी पीढ़ियां
पूजती आई है तब से जब से
सूरज ने चमकना शुरू किया है!

Thursday 13 April 2017

मंगली फोई

उसे नही पता कि
उसका देश कितना बड़ा है?
उसे यह भी नही पता कि
संसार भर में कितने देश है?
काले और गोरे का
भेद भी उसे नहीं पता!

बकरियां चराते कब जवान हुई
पता न चला?
कब बच्चे बड़े होकर अपनी
गिरस्ती के साथ पलायन कर गए
पता न चला?

अभी भी वह है
अपनी टूटी छपरैल की चौकीदार!
अभी मौजूद है आँखों में,
इस विरान के खुशहाली से लहलहाने के सपने!

वह आशाओं का मजबूत खण्डहर,
अपनी दरारों में उगते बीजों से,
हरियल होते मौसम पर भी खुश है।

खुशियां कभी कभी
बहुत दारूण होती है।

Thursday 6 April 2017

बुरांश और नौनि

बुरांश
तुम पहाड़ों पर उगा
उनका हृदय हो!
सुर्ख लाल
धड़कता हुआ!

जैसे दूसरा धड़कता है
पीठ पर घास और लकड़ियों का
गट्ठर लादे,
पहाड़ी रास्तों पर कुँलाचे भरता,
पहाड़ों के बीच।

तुम दो ने पहाड़ों को
अमर कर दिया है!

______
गजेन्द्र

Monday 27 March 2017

ऑल रोड्स लीड टू रोम?

हर सड़क रोम की ओर जाती है,
तो बहुत बुरी है सड़क।
क्यों ले जाना चाहती है सबको?
क्या सभी का साध्य एक है?
नहीं हीं।

सभ्यता का चरम यदि घोषित कर चुके हो!

तो समझ लो कि
सड़क साधन है केवल,
रोम की विपरीत दिशाएँ भी
आबाद रहती रही है!

जीवन रोम की तरह टीवी का
'सोप-ऑपेरा' नही है।

मैं रोम से लौटती सड़क का
राही हूँ!
तुम्हारा रोम तुम्हे मुबारक हो!
_________

- गजेन्द्र पाटीदार

Tuesday 16 August 2016

कितने तिरंगे फहरना अभी बाकी है?

कितने तिरंगे फहरने अभी बाकी है!
___________________________
                                               /गजेन्द्र पाटीदार

वह चाहती थी
आज अपनी सहपाठियों के साथ
प्रभातफेरी में जाना
उठकर नहा कर तैयार हो चुकी थी
कि बप्पा का हुकम हुआ
'जा बकरियां चराने ले जा,
आज छुट्टी है
मां दिहाड़ी पर जा दो पैसे कमा लेगी।'
शायद फेरी में न जाने वाली
कितनी बिटिया आज बकरियां चरा रही है!
अपनी बिटिया को बकरी न चराने देेने की चाह लेकर
भी सत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर
बकरियां चरा रही है।
कितने तिरंगे फहरने बाकी हैं अभी?

Sunday 7 August 2016

चेतना पर त्रासदी

मैं रघु राय के चित्र का वही बच्चा हूं!
भोपाल के भयावह कब्रिस्तान का साक्षी,
जमीन के नीचे आज भी
चेतन हूँ!
मेरी कब्र पर खड़ी हो गई है,
अट्टालिकाएँ
शायद आपकी चेतना मर गई है?

समय ने आप सब की
उम्र बढ़ा दी है!
इसीलिए आ चुकी है झुर्रियां,
चेतना के चेहरों पर!
चमड़ी में शल्क उभर आए हैं
पेड़ों के तनों की तरह,
मैं ठहरी हुई आयु का वही बच्चा हूँ,
तुम्हारी स्मृतियों में।

जब तक जिंदा है तुम्हारी स्मृतियां!
स्मृतियों की उम्र भी बढ़ रही है तुम्हारी तरह
उस पर भी खड़ी हो रही है,
अट्टालिकाएं मेरी कब्र की तरह!!
                                            /गजेन्द्र पाटीदार

Monday 25 July 2016

भ्रम

तालाब के पास
किसी उभरे हुए पत्थर पर,
पंख फैलाए जल कुक्कड़ को देख
नहीं समझना चाहिए
कि वह सरेंडर की मुद्रा में
बैठी,
मछलियों के प्रति अपना प्रायश्चित
प्रकट कर रही है।
समझ लीजिए
वह सुखा रही है पंख
अगली घातक डुबकी के लिए।

Saturday 16 July 2016

सूरज की प्रतीक्षा

घुमड़ते घने काले बादलों
और बरसती
फुहार के गीत
उमगती धरती और बिजली की कौ़ध
पर गीत लिख सकता हूं।
लिख सकता हूं
लरजती भीगती तरूणी के देहबंद
पर
फिर याद आता है
बादलों के गर्जन और बिजली की चकाचौंध से
भयग्रस्त झोपड़ी के दीमक लगे
जर्जर खम्भों को कौन लिखेगा?
उड़ चुकी छपरैल से टपकता आसमान
कौन लिखेगा?
कौन लिखेगा डर से
जब्त रात के बाद
उगते सूरज का स्वागत
मुझे सूरज के ताप से पिघले
काले स्याह चेहरों का
दर्द भी लिखना है,
और लिखना है सूरज की प्रतीक्षा भी।
4/7/16

प्रवास


हमारा चालू रहा प्रवास,
गिना जिसे विश्राम, वह रहा मात्र आभास।

रण के जैसे इस मन में,
तुमको हरियल वन सा साथ लिया।
तुम्ही पिलाओगे यह सोचा तो,
जानबूझकर मृगजल पीया।
हवा कान में कहकर निकली-' फूल में कहां है बास? '
हमारा चालू रहा प्रवास।

जिन पदचिन्हों में खोजे,
पथ की दूरी के हमने मानी।
पर वापस लौट आने वालों की
यही निशानी, आखिर जानी।
अब थककर घुटने टेक रहा विश्वास।
हमारा चालू रहा प्रवास।

मूल रचना.....
-----------------
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!
ગણ્યા વિસામા જેને એ તો હતો માત્ર આભાસ!

રણ જેવા આ મનમાં
લીલા વન શાં તમને સાથે લીધા,
તમે પાઓ છો તેથી તો
મેં છતે જાણતે મૃગજળ પીધાં.
હવા કાનમાં કહી ગઈ કે ફૂલમાં ક્યાં છે વાસ?
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ.

 

જે પગલાંમાં કેડી દેખી
દૂર દૂરની મજલ પલાણી;
પાછા વળનારાની પણ છે
એ જ નિશાની, આખર જાણી!
હવે થાકના ટેકે ડગલાં ભરી રહ્યો વિશ્વાસ!
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!

 

રઘુવીર ચૌધરી

पौधा रोपें

हमने चाहा
सुख
चाहा खुश रहना
चाहा पैसा, पत्नी, बच्चे,
सब चाहा जिससे
खुद आनंद और प्रमोद से जीवन गुजरे।
चाहते रहे जीवन भर
स्वच्छ पानी, स्वच्छ हवा, पुष्ट भोजन
कभी पानी गंदा न करने की कोशिश
नहीं की,
कभी हवा को गंदा और भारी होते देख
दुखी नही हुए,
जबकि सुखी होने की पहली शर्त यही थी।
हमने दूषित किया धरती को, पानी को,
हवा को, आकाश को, सबको
पाप के भागी है हम
चलो प्रायश्चित करलें।
आओ पौधा रोपें
सारी पापमुक्ति का यज्ञ एक ही है,
चलो मिलकर धरती को
हरियाली की चूनर ओढ़ा दें।

Sunday 10 July 2016

गगन पूरा सिर पर

અમે રાખમાંથીયે બેઠા થવાના,
જલાવો તમે તોયે જીવી જવાના.

हम राख भीतर से फिर फिर उठेंगे
जलाओगे तब भी फिर जी उठेंगे।

ભલે જળ ન સીંચો તમે તે છતાંયે,
અમે ભીંત ફાડીને ઊગી જવાના.

भले जल न सींचोगे, फिर देख लेना,
हम दीवारों के भीतर उग कर उठेंगे।

ધખો તમતમારે ભલે સૂર્ય માફક,
સમંદર ભર્યો છે, ન ખૂટી જવાના.

जलो तुम सूरज की तरह ताप लेकर
समंदर भरा है तो खाली न होंगे।

ચલો હાથ સોંપો, ડરો ન લગીરે,
તરી પણ જવાના ને તારી જવાના.

चलो हाथ दो, साथ आओ डरो ना,
तरेंगे भी हम और तुझे तार देंगे।

અમે જાળ માફક ગગન આખું ઝાલ્યું,
અમે પંખી એકે ન ચૂકી જવાના !

गगन पूरा सिर पर लेकर चले हैं,
हम पंखी कोई चूक कर ना चलेंगे।

(गुजराती कवि श्री हर्ष ब्रह्मभट्ट)

तुम्हारे हैं हम तो.

तुम्हारी इन आँखों की हरकत नहीं ना?
फिर से नई कोई आफत नहीं ना??

मुझे चीरती है ये पूरा का पूरा,
पलक बीच इसमें तो करवत नहीं ना?

हम दोनों के बीच बहती नदी है,
इस पानी के नीचे तो पर्वत नहीं ना?

तुम्हारे, तुम्हारे, तुम्हारे हैं हम तो,
इसमें प्रतिश्रुति की जरूरत नहीं ना??

(रचना : यामिनी गौरांग व्यास ઝાકળ યામિની સે સાભાર, अनुवाद :गजेन्द्र पाटीदार)

તમારી એ આંખોની હરકત નથી ને ?
ફરી આ નવી કોઈ આફત નથી ને ?

વહેરે છે અમને તો આખા ને આખા,
એ પાંપણની વચમાં જ કરવત નથી ને ?

વહે છે નદી આપણી બેઉ વચ્ચે,
એ પાણીની નીચે જ પર્વત નથી ને ?

તમારા તમારા તમારા અમે તો,
કહ્યું તો ખરું તોયે ધરપત નથી ને ?

-યામિની ગૌરાંગ વ્યાસ

Friday 3 April 2015

लौहत्व

लोहे को पिघलाकर कूटती
गड़लिया लोहारिन
अनवरत अपने हथौड़े को अविराम
चलाते हुए
हाँफने लगती है।
सारा लोहा पिघलाकर उसने सौंप दिया है धरती को।
नारी अपने रक्त से निचोड़कर
दे देती है सबको
सब कुछ
अपना सत
अपना स्वत्व ।
घोड़े ने लोहे का स्वाद चखा है,
पर संसार में जितना भी लोहा है-
सब नारी के रक्त से है लथपथ
धरती के इतिहास में लोहे की खोज किसने की मुझे नहीं पता?
पर इतना निश्चय है कि लोहे को नारी ने हीं आकार दिया है।
लोहे को नारी ने संस्कार दिया है
खुद अपने अंदर लोहे की
कमी से जूझते हुए,
मानव समाज की नींव को फौलाद से भर दिया है।
नारी के रक्त से छीना
लोहा लौटाया हीं नहीं आदमी ने।
उसी लूटे हुए लोहे के दम पर
आदमी मजबूत बनता है
लुटी हुई नारी से पाकर सब कुछ!!

Thursday 2 April 2015

कविता की कलम (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

मेरी कविता मेरी तरह हीं है,
जिंदा!
जिस तरह तुम मुझे काटना चाहते हो
काटो मुझे
या मेरी कविता को,
हर बार,
हर हाल में
वह होगी जीवित
जीवन की सभी संभावनाओं के साथ,
कटी हुई कविता में भी
शाख की तरह
अनंत संभावनाएं भरी होंगी।
— कि जाकर थोड़ी सी मिट्टी,
थोड़ी सी धूप
और थोड़ा सा पानी दे दो।
नई कोंपले,
नये पत्ते, नये बूटे,
फिर नई ऊर्जा,
उष्मा के साथ नया बिरवाँ
पल्लवित पुष्पित होंगा।

तुम्हारे हत्य़ारे हाथों से भी
महकूंगा मैं;
मेरी कटी हुई कविताएँ।
चाहे काटने के लिये
तुम आओ तो
मेरे पास
मेरी
या मेरी कविताओं की छाया में।  2-4-15©

इतिहास की नजर (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

अपने समय के उस
आलमपनाह की मज़ार के
मोटे, भारी-भरकम पत्थरों की
दरारों में उगने लगी है
घास।

ज्वालामुखी सी आग
दबाए वक्ष में
बैठे किसी पहाड़ की कोख में
जम जाती है पहले पहल
ठंडी बर्फ।
इतिहास आलमगीर
अपनी आँख से
सिर्फ खुद को देखता है,
कितनी लड़ाइयाँ,
संधियाँ कितनी की है उसने।

मैं आँख से नहीं देखता खुद को
न लड़ाइयों, न संधियों को।
देखता हूँ सिर्फ
चट्टानी दरारों के बीच
उँगी घास को चरते
गदहों को
और घास के गिरे बीजों से
अपने बच्चों को पालती, दौड़ना सिखाती
नन्ही गिलहरियों को।
मजार के
सूनेपन को अपनी छाया से
ढाँकते पेड़ पर
चिड़ियों की चहचहाहट
जहाँपनाह की नींद को उचाट देती है! 26-03-2015©

लड़की के बिना (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

उस ऊँचे पहाड़ की सँकरी पगडंडी से
माथे पर 
चीड़  की सूखी
लकड़ियों का बोझ लादे 
वह लड़की
उतर रही है!
सदियों से संभवत:!!
न जाने कब वह चूल्हा जलाएगी?
न जाने कब वह रोटी पकाएगी?
बोझ ढोनें का सदियों का सफर कब बिरमाएगा?
क्या नियति ने उस लड़की का भाग्य
नियत कर दिया है?
कि पहाड़ की सारी चेतना को उसके पदचाप में
भर दिया है!
उन पहाड़ों की गहरी उपत्यकाएँ
शायद सूनी हो जाए
उस पहाड़ी चीड़ की लकड़ी बिनती
लड़की के बिना। 
                    28-03-2015©

अर्जुन का पेड़ (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

मेरे खेत की मेढ़ से
भीष्म प्रतिज्ञा की तरह बँधा
अर्जुन का पेड़
अब भी बचा है,
कितने हीं संग्रामों का गवाह,
जो लड़े गये
उस जमीन के लिये
जिस पर वह खुद खड़ा
निहार रहा है
अपलक, निर्निमेष न जाने कौन सा भूत?
कौन सा भवितव्य?
जिसकी शाख पर झोली बांध
मांए कितनी पीढ़ियों की
करती रही काम
बूढ़े पेड़ पर बसते अज्ञात भूत
से भी निडर
करके भरोसा।
हमारी उन्हीं कितनी हीं पीढ़ियों ने
बड़े होकर सुविधा से
सुविधा के लिये चलाई कुल्हाड़ियाँ
उसकी शाखों पर।
मेढ़ के लिये हुए कितने हीं युद्धों
कितने हीं छलों और कितने हीं झूटों
के सच का एकमात्र शख्स
जो मेरे थक कर
घर लौट आने के बाद भी
निरंतर जूझ रहा है
मेरे वंशजों के लिये प्राणवायु के
सतत निर्माण हित
जब तक जी रहा है सतत कर्मशील।
पृथ्वी के प्रदूषण के विरूद्ध
सतत ब्रह्मास्त्र उठाए
खेत के कुरूक्षेत्र में खड़ा
वह अर्जुन का पेड़
मेरे खेत की मेढ़ से बँधा।
                          30-03-15 चित्र viewpointjharkhand.in से साभार

Sunday 15 March 2015

मौन-प्रार्थना (गजेन्द्र पाटीदार)

प्रार्थना की
कतारों में सम्मिलित
हो हो कर,
तुझ तक,
अपनी आवाज पहुंचाने वाले
कातर लोग,
अपने क्षरित शब्द,
बिखरे स्वर,
पहुचाने में
न जाने कितने
जतन?  कितनी आवृतियों के
ऊँचे बोझ धकिया कर
आसमान के पार,
मान लेते है
सीकरना,
खुद की प्रार्थनाओं का।

उन कतारों से
खुद को
रखकर दूर
आवाजों की भीड़ से
तुझको रखना चाहता हूँ
दूर बहुत दूर
जहाँ से
मौन शुरू होता है!            14-03-15 3:50 सायं

Monday 9 March 2015

तंत्र-लोक (गजेन्द्र पाटीदार)

मेरे लाख समझाने पर भी,
हर बार की तरह
उस पिचहत्तर साला बूढ़ी अम्मा ने
वोट नहीं दिया/
मैंने उसे समझाया
कि अम्मा तेरे एक वोट से
सरकार बदल सकती है,
बन सकती है, गिर सकती है!
मगर टस से मस नहीं हुई अम्मा!
हर बार की तरह मैं खुद कितनी हीं
पार्टियाँ बदल कर
पहुँचा अम्मा के पास
कि शायद अम्मा
इस पार्टी में नहीं तो उस पार्टी में
रहने पर वोट दे दे!
मगर हर बार विफलता!
मुझे अगली चढ़ाई के लिये उकसाती अम्मा/
पर अब सोच रहा हूँ -
अगले चुनावों में मैं नहीं जाउँगा
अम्मा के पास
नहीं मागूंगा उसका वोट
मैं हीं मान लूँगा हार,
मैं हीं मान लूँगा -'उसके एक वोट से क्या होता है?'
पर सोचता हूँ
इन पाँच सालों में
शायद वह हीं आकर कह दे—
'मुझे नहीं चाहिये तेरी सरकार से कुछ
न राशन, न पेंशन, न कुटीर, न संडास,
न कुछ पर देना चाहती हूँ वोट
अब की बार,
आखिरी बार,
मुझे महसूस तो हो
कि तेरी सरकार,
तेरा लोकतंत्र
मेरे वोट का हकदार है!
मैं तंत्र को नहीं
लोक को वोट देना चाहती हूँ
बस चाहती हूँ इतना कि
ऊँचे घर के खानें की खुशबू से
मेरे बच्चे न मचले!
बस चाहती हूँ इतनी सी बात!
क्या तू या तेरी सरकार
मेरे वोट की गारंटी लेने के लिये तैयार है?'
            09-03-2015

8 मार्च

                 !!1!!
8 मार्च.....
-----------------------
गेहूँ की बालियाँ पक चुकी,
राईं, राजगिरा और चना अबेरना है,
यही मेरी शक्ति का राज है
कि
साल भर का दाना
सँवारा लूं
दुनिया सँवर जाएगी!
यह न सँवार सकी
तो
पलायन बरस भर का
सहना है
इसलिए रोजाना मार्च करती हूं
अपनी दुनिया को साधनों के लिये!
भीलनी हूँ
रोजाना आठ मार्च करती हूं
सुबह से शाम तक!
             ------------------
                  !!2!!
8 मार्च
----------------------
आठवीं बच्ची जनते हुए
भी
दोषी मैं?

हे विश्व
पहले अपने ज्ञानकोष में
दम तोड़ते
इस शब्द को
अर्थ संकोच से मुक्ति दिलवाओ
तभी तुम्हारे
सारे प्रयास सार्थक होंगे!

दिनोंदिन घुट-घुट कर
अपराध बोध से मर रहीं मैं
एक पल में
जी लूंगी
सारा जीवन
जब
जनमानस समझ लेगा
कि
आठवीं बच्ची जनने वाली
वीरांगना हीं हो सकती है
खुद को गलाकर
वज्र गढ़ने वाली
जीवित किंवदन्ती दधीचि सी!

इसके बिना
तुम्हारा विश्व कोष
मुर्दा है
रद्दी की टोकरी के लायक!

क्या 8 मार्च
को सार्थक करोगे?

Saturday 7 March 2015

मदालसा उवाच.....



शुद्धोसि बुद्धोसि निरँजनोऽसि
सँसारमाया परिवर्जितोऽसि
सँसारस्वप्नँ त्यज मोहनिद्राँ
मँदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्।

शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम
कृतँ हि तत्कल्पनयाधुनैव।
पच्चात्मकँ देहँ इदँ न तेऽस्ति
नैवास्य त्वँ रोदिषि कस्य हेतो॥

न वै भवान् रोदिति विक्ष्वजन्मा
शब्दोयमायाध्य महीश सूनूम्।
विकल्पयमानो विविधैर्गुणैस्ते
गुणाश्च भौताः सकलेन्दियेषु!!

भूतनि भूतैः परिदुर्बलानि
वृद्धिँ समायाति यथेह पुँसः।
अन्नाम्बुपानादिभिरेव तस्मात्
न तेस्ति वृद्धिर् न च तेस्ति हानिः॥

त्वम् कँचुके शीर्यमाणे निजोस्मिन्
तस्मिन् देहे मूढताँ मा व्रजेथाः।
शुभाशुभौः कर्मभिर्देहमेतत्
मृदादिभिः कँचुकस्ते पिनद्धः॥

तातेति किँचित् तनयेति किँचित्
अँबेति किँचिद्धयितेति किँचित्।
ममेति किँचित् न ममेति किँचित्
त्वम् भूतसँघँ बहु म नयेथाः॥

सुखानि दुःखोपशमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः।
तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि
जानाति विद्धनविमूढचेताः॥

यानँ चित्तौ तत्र गतश्च देहो
देहोपि चान्यः पुरुषो निविष्ठः।
ममत्वमुरोया न यथ तथास्मिन्
देहेति मात्रँ बत मूढरौष।

Thursday 5 March 2015

टेसू के फूल

टेसू के फूल
ज्यों धरती के अंतस् की हुलस
आकाश को रंगने
मचल उठी अनिवार
अपनी केशरिया पिचकारी से
रंग दिया पूरा आकाश
दूर से मत देखो
देखो टेसू की ज़द से
आकाश की असीमता कैसे
एक पेड़ में उतरती है
जब फागुन अपनी सीमा को देता है विस्तार ।
                  1-3-15 9:04 pm

Wednesday 4 March 2015

चेतावनी

वह घुली होती है सब तरफ
हवा में
हवा की तरह
जीवन जीने की भी शर्त है
लोकतंत्र में जीने के लिये जरूरी है
चेतावनी का होना,
उसके न होने के कईं नुकसान है कि
आप चल नहीं सकते।
आप बोल नहीं सकते।
और तो और आप जी नहीं सकते।
चेतावनी
हमें नियंत्रित करती है
ईश्वर की तरह
बिना दिखे
बिना लिखे
सब तरफ
दुर्घटनाओं से भरे समय में
एक वही तो नियंता है
चेतावनी
ईश्वर की तरह जिसे हमने बनाया है
खुद पर अनुशासन रखने का आखिरी हथियार ।
             20/02/2015 3:45 am

Thursday 22 January 2015

विस्मृतियाँ

मैं इस विवाद में नहीं पड़ता
कि
अमृत को ईश्वर ने बनाया
या खोजा!
ईश्वर की ओर से
अनमोल उपहार
अमृत को स्वीकार करता हूँ
आचमन करता हूँ
क्योकि
बिना पान किये
मेरा जीना
और जी उठना मुश्किल हीं नहीं
असंभव है।
जीवन के महाभारत में
चिर अस्थायी और अनावश्यक
स्मृतियों की कुहेलिका
कितनी अवसाद
और उन्माद दशाओं की
मृत्युओं से प्रतिदिन मिलवाती है?
कह नहीं सकता।
एक व्यक्ति अपनी मृत्यु
को प्रति दिन आखिर
कितना सह सकता है?
विस्मृतियों का अमृत हीं
पीकर मैं जी पाता हूँ
अपना पूरा जीवन।
विस्मृतियां हीं
उत्साह और उत्कर्ष का
ताना बाना बुनती है मुझमें
नये ऊगते सूरज के साथ
नयी उमंगें लेकर
विदा करता हूं स्मृतियों की
मौतो को
जीवन मंथन से निकला
विस्मृतियों का अमृत
मुझे अपना पूरा जीवन जीने की
अमरता देता है।
इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता
कि इसे ईश्वर ने
बनाया है या खोजा है।

Monday 5 January 2015

किसान ..

गहरे अवसाद
और कर्ज के बोझ को
सह नहीं पाया।
अपनी पीड़ा
और देयताओं को
कह नहीं पाया।
झेल नहीं पाया तनाव।
हाड़-तोड़ मेहनत के बाद,
असफलता की
अकर्मण्यता का भाव,
घेर चुका है
मुझको।
शेष नहीं जीवन की राह
मर्म को विदीर्ण करते
व्रणों से गिजबिजे मन को
और कितना ढोऊं
घुन लगी इन हड्डियों से?

मैं भूखे पेट मरकर भी
संभावनाओं के कुछ दानें
छोड़ जा रहा हूं
अपनी विरासत में
कि आने वाले समय का कोई
हस्ताक्षर
उन्हे बो दे।
उगा दे
मेरे हिस्से की तृप्ति।
नष्ट कर दे तनाव,
कर्ज और आत्महत्याओं का दौर।
निराशा में भी
छोड़े जा रहा हूं
अन्न के बीज
आशा के साथ
अपनी विरासत में।
जीवन के बाद
संभावनाओं की जमीन के लिये/
                   4-1-15

Tuesday 30 December 2014

मछली के आँसू

मछली के आँसू
महसूस कर रहा हूँ
सागर को देख कर/
इतना खारापन आखिर
पीढ़ा के घनीभूत उच्छ्वास का
तारल्य तो नहीं......
संभव है/
संभव है सागर के किनारे
रेत का सैलाब
कितने मरूओं को
पाले अंक में अपने
कितनी मरीचिकाओं का
अपराधी है ।

मेरे हिस्से का गीत

मुझ जैसे कितने हीं/
लगे हैं और लगेंगे/
जागे है जगेंगे/
गा चुके है और गाएंगे/

मैं लव नहीं!
दशमलव, शतमलव, सहस्त्रमलव, लक्षमलव भी कदापि नहीं/
मैं गणित, ज्ञान और विज्ञान से परे /
एक अदद दायित्व लेकर आया
कोई हूँ /

जो अपने सिर पर
मिट्टी की परत में दबा सोया
किसी सूरज, पानी
और वायु के समुच्चय में,
अपने ऊपर दो पत्तियों के
अंकुरों को निकालकर एक गीत गाऊंगा/ मेरे साथ और
और भी सुर मिलाएंगे/

हम सब धरती पर
धरती के साथ
धरती के लिये
हरियाली के गीत गुनगाएँगे/
इस चिंता के बिना की
समवेत में कौन शामिल है,
और कौन नहीं/
हमें तो गाना है गीत अपने हिस्से का/
मेरे हिस्से का गीत!
28-12-2014

Monday 29 December 2014

घास

घास
घास जानवर के लिये
भोजन का जरिया है।

आदमी के लिये
टहलने का
भोजन पचाने का
क्षणभर ठहर कर सुकून का।

किसान के लिये
आफत है
जो चौपट कर देती है फसल
बिकवा देती है खेत
इसलिये निरंतर उसके
विरूद्ध युद्ध जारी है किसान का।

इस तरह जानवर, आदमी और किसान
को
अलग करती है घास
किसी को भोजन
किसी को विचरण
किसी के लिये मरण का जरिया बन।

पर कुछ और भी है जिनके लिये
सब कुछ है
जैसे कीट - पतंगे,
जिनके लिए
जनम, भोजन, विचरण और मरण
सब कुछ

मगर धरती की सोचो
घास धरती के लिये
उर्वरता है! 

पेशावर का दर्द

जब भी मैं पेशावर से बेसलान की दूरी
नापने की कोशिश करता हूँ
फर्लांग और मीलों में/
वह अपने आप 'कन्वर्ट' हो जाती है
महिनों और वर्षों में/
मेरी हर कोशिश नाकाम साबित होती है।
मैं भूगोल नापना चाहता हूँ
और इतिहास नप जाता है/
इतिहास की एक
हरामी ज़िद
अपनी ज़द में घेर लेती है
समूचा युग!
इस ज़द की बढ़ती कालिख
वर्तमान को लील जाती है,
किसी खामोश अजगर की तरह/
मालूम पड़ता है तब
जब
अजगर
निगल चुका होने के बाद
मरे हुए समय को पचाने के लिये
तड़ तड़ चटकाता है हड्डियाँ /
पेशावर और बेसलान की तरह।

विदेह जीवन

देखता हूं रक्त में प्रवाह
समय से आगे
जैसे
ठहर गया हो समय
और
रक्त धमनी और शिराओं की सीमा
लांघ कर
बहना चाहता है
उन्मुक्त/
रक्त का अवरोध जीवन है?
या रक्त से विरक्त
होकर बह निकलना
होना विदेह
या दुनिया से विरत!
जीवन की सीमाओं से परे
देह और रक्त के संबंधों से विलग
जीवन है निस्सीम!13-12-2014

यज़ीद

नानी की कहानियों में
सुनते थे
चुड़ैलें भी गर्भवती महिलाओं को
मारती नहीं/
भावी माँ का करतीं है सम्मान ।
हत्यारिनें भी जान नहीं लेतीं
यदि जान लेती है कि उसकी शिकार
'दोजीवी' है।
हत्या में शिष्टाचार
लगता है
मिथक और कहानियों की बातें
हो चुकी है।
डेढ़सौ निरीह महिलाओं का निर्मम वध
सुनकर
रूह तो काँपती हीं है
पर
लगता है
कि यज़ीद और यज़ीदियों ने
शब्द नहीं बदले,
अर्थ बदल लिये है
बदलते दौर में।
20-12-2014

Friday 26 December 2014

घास

घास
घास जानवर के लिये
भोजन का जरिया है।

आदमी के लिये
टहलने का
भोजन पचाने का
क्षणभर ठहर कर सुकून का।

किसान के लिये
आफत है
जो चौपट कर देती है फसल
बिकवा देती है खेत
इसलिये निरंतर उसके
विरूद्ध युद्ध जारी है किसान का।

इस तरह जानवर, आदमी और किसान
को
अलग करती है घास
किसी को भोजन
किसी को विचरण
किसी के लिये मरण का जरिया बन।

पर कुछ और भी है जिनके लिये
सब कुछ है
जैसे कीट - पतंगे,
जिनके लिए
जनम, भोजन, विचरण और मरण
सब कुछ

मगर धरती की सोचो
घास धरती के लिये
उर्वरता है
सतत लड़कर मरूथल के साथ

घास हीं जीवन का क्रम सिरजती है।

Sunday 12 October 2014

रोप-वे—गजेंद्र पाटीदार

मुझे मालूम है
मृत्यु जीवन का
अनिवार्य
और
अंतिम सत्य है/
फिर भी
मृत्यु के विरूद्ध
जीवन
कितने षड़यंत्र करता है?
मुझमें भी
अमरत्व की भूख
इतनी बढ़ चुकी है कि
मरना भूल चुका हूँ/
अमरता भूख है
और मौत भय/
(भय को भुलाना
भी षड़यंत्र है)
भय को भूलना
जरूरी है,
संभवत:
जीवन की मजबूरी/
इस तरह
भय और भूख
के बीच
जीवन
'रोप-वे'/
                      दि.12-10-14

Thursday 2 October 2014

मेरा गणतंत्र— गजेंद्र पाटीदार

मैं जनतंत्र का 'जन'
तंत्र से जुदा
सुनता हूँ
गणतंत्र चार स्तंभों पर खड़ा है
मैं देखता हूँ ।

पर मुझे बताया गया है
ये चार स्तंभ हाथी के पांव जैसे है।
इन चार स्तंभों को स्वीकार करने के लिये
मुझे अंधा होना चाहिये।

यदि मैंने देखे
इस गणतंत्र के पैरों को
'चौपाये' की तरह
तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
बेज़ा इस्तेमाल होगा!

देश में कानून का राज है
राष्ट्र की सुरक्षा
राष्ट्रवासियों से ऊपर है!

यदि 'चौपाये' के पैरों को
मैंने कहा 'लंगड़ा'
तो इसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी
संविधान ने मुझ पर सौंपी है

यह चौपाया जिसे चलाने के चक्कर नें
'नाल' ठुकवाई गई है
ताकि चौपाये का लंगड़ापन
लील जाए 'नाल'

पर नाल है कि
पैर से उखड़ कर दूसरे पैर को
घायल कर रही है
गणतंत्र को लंगड़ाना है

मैं आश्वस्त हूँ
कि मैं इस चौपाये की खींची
गाड़ी में बैठा हूँ
ये कहीं पहुँचे
न पहुँचे

सूत्रधार
इस मर्म को जानता है
कि मंच पर चौपाये को चलाने का
तरीका यह भी है कि-
नैपथ्य की यवनिका को पीछे की तरफ
खींचा जाए
गणतंत्र आगे
चलता हुआ महसूस होगा।
                                       01-10-14