काव्य भूमि
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।
Thursday 16 July 2020
घास कथा
Tuesday 14 July 2020
स्वतंत्रता और वामपंथ
कोरोना की दवा
भद्रदारू
Wednesday 8 July 2020
ताप्ती नदी
Friday 21 April 2017
प्रेम का उत्ताप
अपनी सीमाओं में ही सही,
सूरज पास आता है
धरती पर ताप
बढ़ जाता है।
वैशाखी दुपहरी में
हमारा हाहाकार
सूरज को सिर पर उठाता सा।
कभी सूरज को धरती के पास
आने पर कितनी ठंडक मिलती है?
यह भी चिन्हना
किसी विरही के पास बैठकर।
- गजेन्द्र पाटीदार
Thursday 20 April 2017
सूरज पर कब्जा
लोहार यूं ही चिल्लाता रहा
लोहे की तपन।
लोहे को ऐंठ देने की कला पर
ऐंठता रहा!
घोड़ा
जुगाली करते हुए
लगाम को उगालता रहा।
भले उसकी हर कोशिश बेमानी थी।
मैं उलझता रहा लगाम की जुगाली पर।
खुरों में नाल ठुकने के
दर्द पर मेरा ध्यान ही नहीं गया!
मुझे तो बस उसे
विजेता दौड़ के लिए
हांकना था।
जो खुरों और नाल के बीच
उलझी हुई थी!
खुरों में ठुँकती कीलों की नोक
और
लोहारिन के खून से रिसते लोहे की,
कमी से चुभती कीलों का
दर्द वैसा ही था!
इसके बावजूद ऐंठ जारी है,
भट्टी और धौकनी के बल पर
सूरज को कब्जाने की
कोशिश में
नए तर्क गढ़े जा रहे हैं
कि हमारी पीढ़ियां
पूजती आई है तब से जब से
सूरज ने चमकना शुरू किया है!
Thursday 13 April 2017
मंगली फोई
उसे नही पता कि
उसका देश कितना बड़ा है?
उसे यह भी नही पता कि
संसार भर में कितने देश है?
काले और गोरे का
भेद भी उसे नहीं पता!
बकरियां चराते कब जवान हुई
पता न चला?
कब बच्चे बड़े होकर अपनी
गिरस्ती के साथ पलायन कर गए
पता न चला?
अभी भी वह है
अपनी टूटी छपरैल की चौकीदार!
अभी मौजूद है आँखों में,
इस विरान के खुशहाली से लहलहाने के सपने!
वह आशाओं का मजबूत खण्डहर,
अपनी दरारों में उगते बीजों से,
हरियल होते मौसम पर भी खुश है।
खुशियां कभी कभी
बहुत दारूण होती है।
Thursday 6 April 2017
बुरांश और नौनि
बुरांश
तुम पहाड़ों पर उगा
उनका हृदय हो!
सुर्ख लाल
धड़कता हुआ!
जैसे दूसरा धड़कता है
पीठ पर घास और लकड़ियों का
गट्ठर लादे,
पहाड़ी रास्तों पर कुँलाचे भरता,
पहाड़ों के बीच।
तुम दो ने पहाड़ों को
अमर कर दिया है!
______
गजेन्द्र
Monday 27 March 2017
ऑल रोड्स लीड टू रोम?
हर सड़क रोम की ओर जाती है,
तो बहुत बुरी है सड़क।
क्यों ले जाना चाहती है सबको?
क्या सभी का साध्य एक है?
नहीं हीं।
सभ्यता का चरम यदि घोषित कर चुके हो!
तो समझ लो कि
सड़क साधन है केवल,
रोम की विपरीत दिशाएँ भी
आबाद रहती रही है!
जीवन रोम की तरह टीवी का
'सोप-ऑपेरा' नही है।
मैं रोम से लौटती सड़क का
राही हूँ!
तुम्हारा रोम तुम्हे मुबारक हो!
_________
- गजेन्द्र पाटीदार
Tuesday 30 August 2016
Tuesday 16 August 2016
कितने तिरंगे फहरना अभी बाकी है?
कितने तिरंगे फहरने अभी बाकी है!
___________________________
/गजेन्द्र पाटीदार
वह चाहती थी
आज अपनी सहपाठियों के साथ
प्रभातफेरी में जाना
उठकर नहा कर तैयार हो चुकी थी
कि बप्पा का हुकम हुआ
'जा बकरियां चराने ले जा,
आज छुट्टी है
मां दिहाड़ी पर जा दो पैसे कमा लेगी।'
शायद फेरी में न जाने वाली
कितनी बिटिया आज बकरियां चरा रही है!
अपनी बिटिया को बकरी न चराने देेने की चाह लेकर
भी सत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर
बकरियां चरा रही है।
कितने तिरंगे फहरने बाकी हैं अभी?
Sunday 7 August 2016
चेतना पर त्रासदी
मैं रघु राय के चित्र का वही बच्चा हूं!
भोपाल के भयावह कब्रिस्तान का साक्षी,
जमीन के नीचे आज भी
चेतन हूँ!
मेरी कब्र पर खड़ी हो गई है,
अट्टालिकाएँ
शायद आपकी चेतना मर गई है?
समय ने आप सब की
उम्र बढ़ा दी है!
इसीलिए आ चुकी है झुर्रियां,
चेतना के चेहरों पर!
चमड़ी में शल्क उभर आए हैं
पेड़ों के तनों की तरह,
मैं ठहरी हुई आयु का वही बच्चा हूँ,
तुम्हारी स्मृतियों में।
जब तक जिंदा है तुम्हारी स्मृतियां!
स्मृतियों की उम्र भी बढ़ रही है तुम्हारी तरह
उस पर भी खड़ी हो रही है,
अट्टालिकाएं मेरी कब्र की तरह!!
/गजेन्द्र पाटीदार
Monday 25 July 2016
भ्रम
तालाब के पास
किसी उभरे हुए पत्थर पर,
पंख फैलाए जल कुक्कड़ को देख
नहीं समझना चाहिए
कि वह सरेंडर की मुद्रा में
बैठी,
मछलियों के प्रति अपना प्रायश्चित
प्रकट कर रही है।
समझ लीजिए
वह सुखा रही है पंख
अगली घातक डुबकी के लिए।
Saturday 16 July 2016
सूरज की प्रतीक्षा
घुमड़ते घने काले बादलों
और बरसती
फुहार के गीत
उमगती धरती और बिजली की कौ़ध
पर गीत लिख सकता हूं।
लिख सकता हूं
लरजती भीगती तरूणी के देहबंद
पर
फिर याद आता है
बादलों के गर्जन और बिजली की चकाचौंध से
भयग्रस्त झोपड़ी के दीमक लगे
जर्जर खम्भों को कौन लिखेगा?
उड़ चुकी छपरैल से टपकता आसमान
कौन लिखेगा?
कौन लिखेगा डर से
जब्त रात के बाद
उगते सूरज का स्वागत
मुझे सूरज के ताप से पिघले
काले स्याह चेहरों का
दर्द भी लिखना है,
और लिखना है सूरज की प्रतीक्षा भी।
4/7/16
प्रवास
हमारा चालू रहा प्रवास,
गिना जिसे विश्राम, वह रहा मात्र आभास।
रण के जैसे इस मन में,
तुमको हरियल वन सा साथ लिया।
तुम्ही पिलाओगे यह सोचा तो,
जानबूझकर मृगजल पीया।
हवा कान में कहकर निकली-' फूल में कहां है बास? '
हमारा चालू रहा प्रवास।
जिन पदचिन्हों में खोजे,
पथ की दूरी के हमने मानी।
पर वापस लौट आने वालों की
यही निशानी, आखिर जानी।
अब थककर घुटने टेक रहा विश्वास।
हमारा चालू रहा प्रवास।
मूल रचना.....
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અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!
ગણ્યા વિસામા જેને એ તો હતો માત્ર આભાસ!
રણ જેવા આ મનમાં
લીલા વન શાં તમને સાથે લીધા,
તમે પાઓ છો તેથી તો
મેં છતે જાણતે મૃગજળ પીધાં.
હવા કાનમાં કહી ગઈ કે ફૂલમાં ક્યાં છે વાસ?
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ.
જે પગલાંમાં કેડી દેખી
દૂર દૂરની મજલ પલાણી;
પાછા વળનારાની પણ છે
એ જ નિશાની, આખર જાણી!
હવે થાકના ટેકે ડગલાં ભરી રહ્યો વિશ્વાસ!
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!
રઘુવીર ચૌધરી
पौधा रोपें
हमने चाहा
सुख
चाहा खुश रहना
चाहा पैसा, पत्नी, बच्चे,
सब चाहा जिससे
खुद आनंद और प्रमोद से जीवन गुजरे।
चाहते रहे जीवन भर
स्वच्छ पानी, स्वच्छ हवा, पुष्ट भोजन
कभी पानी गंदा न करने की कोशिश
नहीं की,
कभी हवा को गंदा और भारी होते देख
दुखी नही हुए,
जबकि सुखी होने की पहली शर्त यही थी।
हमने दूषित किया धरती को, पानी को,
हवा को, आकाश को, सबको
पाप के भागी है हम
चलो प्रायश्चित करलें।
आओ पौधा रोपें
सारी पापमुक्ति का यज्ञ एक ही है,
चलो मिलकर धरती को
हरियाली की चूनर ओढ़ा दें।
Sunday 10 July 2016
गगन पूरा सिर पर
અમે રાખમાંથીયે બેઠા થવાના,
જલાવો તમે તોયે જીવી જવાના.
हम राख भीतर से फिर फिर उठेंगे
जलाओगे तब भी फिर जी उठेंगे।
ભલે જળ ન સીંચો તમે તે છતાંયે,
અમે ભીંત ફાડીને ઊગી જવાના.
भले जल न सींचोगे, फिर देख लेना,
हम दीवारों के भीतर उग कर उठेंगे।
ધખો તમતમારે ભલે સૂર્ય માફક,
સમંદર ભર્યો છે, ન ખૂટી જવાના.
जलो तुम सूरज की तरह ताप लेकर
समंदर भरा है तो खाली न होंगे।
ચલો હાથ સોંપો, ડરો ન લગીરે,
તરી પણ જવાના ને તારી જવાના.
चलो हाथ दो, साथ आओ डरो ना,
तरेंगे भी हम और तुझे तार देंगे।
અમે જાળ માફક ગગન આખું ઝાલ્યું,
અમે પંખી એકે ન ચૂકી જવાના !
गगन पूरा सिर पर लेकर चले हैं,
हम पंखी कोई चूक कर ना चलेंगे।
(गुजराती कवि श्री हर्ष ब्रह्मभट्ट)
तुम्हारे हैं हम तो.
तुम्हारी इन आँखों की हरकत नहीं ना?
फिर से नई कोई आफत नहीं ना??
मुझे चीरती है ये पूरा का पूरा,
पलक बीच इसमें तो करवत नहीं ना?
हम दोनों के बीच बहती नदी है,
इस पानी के नीचे तो पर्वत नहीं ना?
तुम्हारे, तुम्हारे, तुम्हारे हैं हम तो,
इसमें प्रतिश्रुति की जरूरत नहीं ना??
(रचना : यामिनी गौरांग व्यास ઝાકળ યામિની સે સાભાર, अनुवाद :गजेन्द्र पाटीदार)
તમારી એ આંખોની હરકત નથી ને ?
ફરી આ નવી કોઈ આફત નથી ને ?
વહેરે છે અમને તો આખા ને આખા,
એ પાંપણની વચમાં જ કરવત નથી ને ?
વહે છે નદી આપણી બેઉ વચ્ચે,
એ પાણીની નીચે જ પર્વત નથી ને ?
તમારા તમારા તમારા અમે તો,
કહ્યું તો ખરું તોયે ધરપત નથી ને ?
-યામિની ગૌરાંગ વ્યાસ
Thursday 7 April 2016
Sunday 28 February 2016
हत्याएं
दिशा
Friday 3 April 2015
लौहत्व
गड़लिया लोहारिन
अनवरत अपने हथौड़े को अविराम
चलाते हुए
हाँफने लगती है।
सारा लोहा पिघलाकर उसने सौंप दिया है धरती को।
नारी अपने रक्त से निचोड़कर
दे देती है सबको
सब कुछ
अपना सत
अपना स्वत्व ।
घोड़े ने लोहे का स्वाद चखा है,
पर संसार में जितना भी लोहा है-
सब नारी के रक्त से है लथपथ
धरती के इतिहास में लोहे की खोज किसने की मुझे नहीं पता?
पर इतना निश्चय है कि लोहे को नारी ने हीं आकार दिया है।
लोहे को नारी ने संस्कार दिया है
खुद अपने अंदर लोहे की
कमी से जूझते हुए,
मानव समाज की नींव को फौलाद से भर दिया है।
नारी के रक्त से छीना
लोहा लौटाया हीं नहीं आदमी ने।
उसी लूटे हुए लोहे के दम पर
आदमी मजबूत बनता है
लुटी हुई नारी से पाकर सब कुछ!!
Thursday 2 April 2015
कविता की कलम (कविता) गजेन्द्र पाटीदार
जिंदा!
जिस तरह तुम मुझे काटना चाहते हो
काटो मुझे
या मेरी कविता को,
हर बार,
हर हाल में
वह होगी जीवित
जीवन की सभी संभावनाओं के साथ,
कटी हुई कविता में भी
शाख की तरह
अनंत संभावनाएं भरी होंगी।
— कि जाकर थोड़ी सी मिट्टी,
थोड़ी सी धूप
और थोड़ा सा पानी दे दो।
नई कोंपले,
नये पत्ते, नये बूटे,
फिर नई ऊर्जा,
उष्मा के साथ नया बिरवाँ
पल्लवित पुष्पित होंगा।
तुम्हारे हत्य़ारे हाथों से भी
महकूंगा मैं;
मेरी कटी हुई कविताएँ।
चाहे काटने के लिये
तुम आओ तो
मेरे पास
मेरी
या मेरी कविताओं की छाया में। 2-4-15©
इतिहास की नजर (कविता) गजेन्द्र पाटीदार
आलमपनाह की मज़ार के
मोटे, भारी-भरकम पत्थरों की
दरारों में उगने लगी है
घास।
ज्वालामुखी सी आग
दबाए वक्ष में
बैठे किसी पहाड़ की कोख में
जम जाती है पहले पहल
ठंडी बर्फ।
इतिहास आलमगीर
अपनी आँख से
सिर्फ खुद को देखता है,
कितनी लड़ाइयाँ,
संधियाँ कितनी की है उसने।
मैं आँख से नहीं देखता खुद को
न लड़ाइयों, न संधियों को।
देखता हूँ सिर्फ
चट्टानी दरारों के बीच
उँगी घास को चरते
गदहों को
और घास के गिरे बीजों से
अपने बच्चों को पालती, दौड़ना सिखाती
नन्ही गिलहरियों को।
मजार के
सूनेपन को अपनी छाया से
ढाँकते पेड़ पर
चिड़ियों की चहचहाहट
जहाँपनाह की नींद को उचाट देती है! 26-03-2015©
लड़की के बिना (कविता) गजेन्द्र पाटीदार
अर्जुन का पेड़ (कविता) गजेन्द्र पाटीदार
भीष्म प्रतिज्ञा की तरह बँधा
अर्जुन का पेड़
अब भी बचा है,
कितने हीं संग्रामों का गवाह,
जो लड़े गये
उस जमीन के लिये
जिस पर वह खुद खड़ा
निहार रहा है
अपलक, निर्निमेष न जाने कौन सा भूत?
कौन सा भवितव्य?
जिसकी शाख पर झोली बांध
मांए कितनी पीढ़ियों की
करती रही काम
बूढ़े पेड़ पर बसते अज्ञात भूत
से भी निडर
करके भरोसा।
हमारी उन्हीं कितनी हीं पीढ़ियों ने
बड़े होकर सुविधा से
सुविधा के लिये चलाई कुल्हाड़ियाँ
उसकी शाखों पर।
मेढ़ के लिये हुए कितने हीं युद्धों
कितने हीं छलों और कितने हीं झूटों
के सच का एकमात्र शख्स
जो मेरे थक कर
घर लौट आने के बाद भी
निरंतर जूझ रहा है
मेरे वंशजों के लिये प्राणवायु के
सतत निर्माण हित
जब तक जी रहा है सतत कर्मशील।
पृथ्वी के प्रदूषण के विरूद्ध
सतत ब्रह्मास्त्र उठाए
खेत के कुरूक्षेत्र में खड़ा
वह अर्जुन का पेड़
मेरे खेत की मेढ़ से बँधा।
30-03-15 चित्र viewpointjharkhand.in से साभार
Sunday 15 March 2015
मौन-प्रार्थना (गजेन्द्र पाटीदार)
कतारों में सम्मिलित
हो हो कर,
तुझ तक,
अपनी आवाज पहुंचाने वाले
कातर लोग,
अपने क्षरित शब्द,
बिखरे स्वर,
पहुचाने में
न जाने कितने
जतन? कितनी आवृतियों के
ऊँचे बोझ धकिया कर
आसमान के पार,
मान लेते है
सीकरना,
खुद की प्रार्थनाओं का।
उन कतारों से
खुद को
रखकर दूर
आवाजों की भीड़ से
तुझको रखना चाहता हूँ
दूर बहुत दूर
जहाँ से
मौन शुरू होता है! 14-03-15 3:50 सायं
Monday 9 March 2015
तंत्र-लोक (गजेन्द्र पाटीदार)
हर बार की तरह
उस पिचहत्तर साला बूढ़ी अम्मा ने
वोट नहीं दिया/
मैंने उसे समझाया
कि अम्मा तेरे एक वोट से
सरकार बदल सकती है,
बन सकती है, गिर सकती है!
मगर टस से मस नहीं हुई अम्मा!
हर बार की तरह मैं खुद कितनी हीं
पार्टियाँ बदल कर
पहुँचा अम्मा के पास
कि शायद अम्मा
इस पार्टी में नहीं तो उस पार्टी में
रहने पर वोट दे दे!
मगर हर बार विफलता!
मुझे अगली चढ़ाई के लिये उकसाती अम्मा/
पर अब सोच रहा हूँ -
अगले चुनावों में मैं नहीं जाउँगा
अम्मा के पास
नहीं मागूंगा उसका वोट
मैं हीं मान लूँगा हार,
मैं हीं मान लूँगा -'उसके एक वोट से क्या होता है?'
पर सोचता हूँ
इन पाँच सालों में
शायद वह हीं आकर कह दे—
'मुझे नहीं चाहिये तेरी सरकार से कुछ
न राशन, न पेंशन, न कुटीर, न संडास,
न कुछ पर देना चाहती हूँ वोट
अब की बार,
आखिरी बार,
मुझे महसूस तो हो
कि तेरी सरकार,
तेरा लोकतंत्र
मेरे वोट का हकदार है!
मैं तंत्र को नहीं
लोक को वोट देना चाहती हूँ
बस चाहती हूँ इतना कि
ऊँचे घर के खानें की खुशबू से
मेरे बच्चे न मचले!
बस चाहती हूँ इतनी सी बात!
क्या तू या तेरी सरकार
मेरे वोट की गारंटी लेने के लिये तैयार है?'
09-03-2015
8 मार्च
8 मार्च.....
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गेहूँ की बालियाँ पक चुकी,
राईं, राजगिरा और चना अबेरना है,
यही मेरी शक्ति का राज है
कि
साल भर का दाना
सँवारा लूं
दुनिया सँवर जाएगी!
यह न सँवार सकी
तो
पलायन बरस भर का
सहना है
इसलिए रोजाना मार्च करती हूं
अपनी दुनिया को साधनों के लिये!
भीलनी हूँ
रोजाना आठ मार्च करती हूं
सुबह से शाम तक!
------------------
!!2!!
8 मार्च
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आठवीं बच्ची जनते हुए
भी
दोषी मैं?
हे विश्व
पहले अपने ज्ञानकोष में
दम तोड़ते
इस शब्द को
अर्थ संकोच से मुक्ति दिलवाओ
तभी तुम्हारे
सारे प्रयास सार्थक होंगे!
दिनोंदिन घुट-घुट कर
अपराध बोध से मर रहीं मैं
एक पल में
जी लूंगी
सारा जीवन
जब
जनमानस समझ लेगा
कि
आठवीं बच्ची जनने वाली
वीरांगना हीं हो सकती है
खुद को गलाकर
वज्र गढ़ने वाली
जीवित किंवदन्ती दधीचि सी!
इसके बिना
तुम्हारा विश्व कोष
मुर्दा है
रद्दी की टोकरी के लायक!
क्या 8 मार्च
को सार्थक करोगे?
Saturday 7 March 2015
मदालसा उवाच.....
शुद्धोसि बुद्धोसि निरँजनोऽसि
सँसारमाया परिवर्जितोऽसि
सँसारस्वप्नँ त्यज मोहनिद्राँ
मँदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्।
शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम
कृतँ हि तत्कल्पनयाधुनैव।
पच्चात्मकँ देहँ इदँ न तेऽस्ति
नैवास्य त्वँ रोदिषि कस्य हेतो॥
न वै भवान् रोदिति विक्ष्वजन्मा
शब्दोयमायाध्य महीश सूनूम्।
विकल्पयमानो विविधैर्गुणैस्ते
गुणाश्च भौताः सकलेन्दियेषु!!
भूतनि भूतैः परिदुर्बलानि
वृद्धिँ समायाति यथेह पुँसः।
अन्नाम्बुपानादिभिरेव तस्मात्
न तेस्ति वृद्धिर् न च तेस्ति हानिः॥
त्वम् कँचुके शीर्यमाणे निजोस्मिन्
तस्मिन् देहे मूढताँ मा व्रजेथाः।
शुभाशुभौः कर्मभिर्देहमेतत्
मृदादिभिः कँचुकस्ते पिनद्धः॥
तातेति किँचित् तनयेति किँचित्
अँबेति किँचिद्धयितेति किँचित्।
ममेति किँचित् न ममेति किँचित्
त्वम् भूतसँघँ बहु म नयेथाः॥
सुखानि दुःखोपशमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः।
तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि
जानाति विद्धनविमूढचेताः॥
यानँ चित्तौ तत्र गतश्च देहो
देहोपि चान्यः पुरुषो निविष्ठः।
ममत्वमुरोया न यथ तथास्मिन्
देहेति मात्रँ बत मूढरौष।
Thursday 5 March 2015
टेसू के फूल
ज्यों धरती के अंतस् की हुलस
आकाश को रंगने
मचल उठी अनिवार
अपनी केशरिया पिचकारी से
रंग दिया पूरा आकाश
दूर से मत देखो
देखो टेसू की ज़द से
आकाश की असीमता कैसे
एक पेड़ में उतरती है
जब फागुन अपनी सीमा को देता है विस्तार ।
1-3-15 9:04 pm
Wednesday 4 March 2015
चेतावनी
हवा में
हवा की तरह
जीवन जीने की भी शर्त है
लोकतंत्र में जीने के लिये जरूरी है
चेतावनी का होना,
उसके न होने के कईं नुकसान है कि
आप चल नहीं सकते।
आप बोल नहीं सकते।
और तो और आप जी नहीं सकते।
चेतावनी
हमें नियंत्रित करती है
ईश्वर की तरह
बिना दिखे
बिना लिखे
सब तरफ
दुर्घटनाओं से भरे समय में
एक वही तो नियंता है
चेतावनी
ईश्वर की तरह जिसे हमने बनाया है
खुद पर अनुशासन रखने का आखिरी हथियार ।
20/02/2015 3:45 am
Thursday 22 January 2015
विस्मृतियाँ
कि
अमृत को ईश्वर ने बनाया
या खोजा!
ईश्वर की ओर से
अनमोल उपहार
अमृत को स्वीकार करता हूँ
आचमन करता हूँ
क्योकि
बिना पान किये
मेरा जीना
और जी उठना मुश्किल हीं नहीं
असंभव है।
जीवन के महाभारत में
चिर अस्थायी और अनावश्यक
स्मृतियों की कुहेलिका
कितनी अवसाद
और उन्माद दशाओं की
मृत्युओं से प्रतिदिन मिलवाती है?
कह नहीं सकता।
एक व्यक्ति अपनी मृत्यु
को प्रति दिन आखिर
कितना सह सकता है?
विस्मृतियों का अमृत हीं
पीकर मैं जी पाता हूँ
अपना पूरा जीवन।
विस्मृतियां हीं
उत्साह और उत्कर्ष का
ताना बाना बुनती है मुझमें
नये ऊगते सूरज के साथ
नयी उमंगें लेकर
विदा करता हूं स्मृतियों की
मौतो को
जीवन मंथन से निकला
विस्मृतियों का अमृत
मुझे अपना पूरा जीवन जीने की
अमरता देता है।
इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता
कि इसे ईश्वर ने
बनाया है या खोजा है।
Monday 5 January 2015
किसान ..
और कर्ज के बोझ को
सह नहीं पाया।
अपनी पीड़ा
और देयताओं को
कह नहीं पाया।
झेल नहीं पाया तनाव।
हाड़-तोड़ मेहनत के बाद,
असफलता की
अकर्मण्यता का भाव,
घेर चुका है
मुझको।
शेष नहीं जीवन की राह
मर्म को विदीर्ण करते
व्रणों से गिजबिजे मन को
और कितना ढोऊं
घुन लगी इन हड्डियों से?
मैं भूखे पेट मरकर भी
संभावनाओं के कुछ दानें
छोड़ जा रहा हूं
अपनी विरासत में
कि आने वाले समय का कोई
हस्ताक्षर
उन्हे बो दे।
उगा दे
मेरे हिस्से की तृप्ति।
नष्ट कर दे तनाव,
कर्ज और आत्महत्याओं का दौर।
निराशा में भी
छोड़े जा रहा हूं
अन्न के बीज
आशा के साथ
अपनी विरासत में।
जीवन के बाद
संभावनाओं की जमीन के लिये/
4-1-15
Tuesday 30 December 2014
मछली के आँसू
महसूस कर रहा हूँ
सागर को देख कर/
इतना खारापन आखिर
पीढ़ा के घनीभूत उच्छ्वास का
तारल्य तो नहीं......
संभव है/
संभव है सागर के किनारे
रेत का सैलाब
कितने मरूओं को
पाले अंक में अपने
कितनी मरीचिकाओं का
अपराधी है ।
मेरे हिस्से का गीत
लगे हैं और लगेंगे/
जागे है जगेंगे/
गा चुके है और गाएंगे/
मैं लव नहीं!
दशमलव, शतमलव, सहस्त्रमलव, लक्षमलव भी कदापि नहीं/
मैं गणित, ज्ञान और विज्ञान से परे /
एक अदद दायित्व लेकर आया
कोई हूँ /
जो अपने सिर पर
मिट्टी की परत में दबा सोया
किसी सूरज, पानी
और वायु के समुच्चय में,
अपने ऊपर दो पत्तियों के
अंकुरों को निकालकर एक गीत गाऊंगा/ मेरे साथ और
और भी सुर मिलाएंगे/
हम सब धरती पर
धरती के साथ
धरती के लिये
हरियाली के गीत गुनगाएँगे/
इस चिंता के बिना की
समवेत में कौन शामिल है,
और कौन नहीं/
हमें तो गाना है गीत अपने हिस्से का/
मेरे हिस्से का गीत!
28-12-2014
Monday 29 December 2014
घास
घास जानवर के लिये
भोजन का जरिया है।
आदमी के लिये
टहलने का
भोजन पचाने का
क्षणभर ठहर कर सुकून का।
किसान के लिये
आफत है
जो चौपट कर देती है फसल
बिकवा देती है खेत
इसलिये निरंतर उसके
विरूद्ध युद्ध जारी है किसान का।
इस तरह जानवर, आदमी और किसान
को
अलग करती है घास
किसी को भोजन
किसी को विचरण
किसी के लिये मरण का जरिया बन।
पर कुछ और भी है जिनके लिये
सब कुछ है
जैसे कीट - पतंगे,
जिनके लिए
जनम, भोजन, विचरण और मरण
सब कुछ
मगर धरती की सोचो
घास धरती के लिये
उर्वरता है!
पेशावर का दर्द
नापने की कोशिश करता हूँ
फर्लांग और मीलों में/
वह अपने आप 'कन्वर्ट' हो जाती है
महिनों और वर्षों में/
मेरी हर कोशिश नाकाम साबित होती है।
मैं भूगोल नापना चाहता हूँ
और इतिहास नप जाता है/
इतिहास की एक
हरामी ज़िद
अपनी ज़द में घेर लेती है
समूचा युग!
इस ज़द की बढ़ती कालिख
वर्तमान को लील जाती है,
किसी खामोश अजगर की तरह/
मालूम पड़ता है तब
जब
अजगर
निगल चुका होने के बाद
मरे हुए समय को पचाने के लिये
तड़ तड़ चटकाता है हड्डियाँ /
पेशावर और बेसलान की तरह।
विदेह जीवन
समय से आगे
जैसे
ठहर गया हो समय
और
रक्त धमनी और शिराओं की सीमा
लांघ कर
बहना चाहता है
उन्मुक्त/
रक्त का अवरोध जीवन है?
या रक्त से विरक्त
होकर बह निकलना
होना विदेह
या दुनिया से विरत!
जीवन की सीमाओं से परे
देह और रक्त के संबंधों से विलग
जीवन है निस्सीम!13-12-2014
यज़ीद
सुनते थे
चुड़ैलें भी गर्भवती महिलाओं को
मारती नहीं/
भावी माँ का करतीं है सम्मान ।
हत्यारिनें भी जान नहीं लेतीं
यदि जान लेती है कि उसकी शिकार
'दोजीवी' है।
हत्या में शिष्टाचार
लगता है
मिथक और कहानियों की बातें
हो चुकी है।
डेढ़सौ निरीह महिलाओं का निर्मम वध
सुनकर
रूह तो काँपती हीं है
पर
लगता है
कि यज़ीद और यज़ीदियों ने
शब्द नहीं बदले,
अर्थ बदल लिये है
बदलते दौर में।
20-12-2014
Friday 26 December 2014
घास
घास जानवर के लिये
भोजन का जरिया है।
आदमी के लिये
टहलने का
भोजन पचाने का
क्षणभर ठहर कर सुकून का।
किसान के लिये
आफत है
जो चौपट कर देती है फसल
बिकवा देती है खेत
इसलिये निरंतर उसके
विरूद्ध युद्ध जारी है किसान का।
इस तरह जानवर, आदमी और किसान
को
अलग करती है घास
किसी को भोजन
किसी को विचरण
किसी के लिये मरण का जरिया बन।
पर कुछ और भी है जिनके लिये
सब कुछ है
जैसे कीट - पतंगे,
जिनके लिए
जनम, भोजन, विचरण और मरण
सब कुछ
मगर धरती की सोचो
घास धरती के लिये
उर्वरता है
सतत लड़कर मरूथल के साथ
घास हीं जीवन का क्रम सिरजती है।
Sunday 12 October 2014
रोप-वे—गजेंद्र पाटीदार
मुझे मालूम है
मृत्यु जीवन का
अनिवार्य
और
अंतिम सत्य है/
फिर भी
मृत्यु के विरूद्ध
जीवन
कितने षड़यंत्र करता है?
मुझमें भी
अमरत्व की भूख
इतनी बढ़ चुकी है कि
मरना भूल चुका हूँ/
अमरता भूख है
और मौत भय/
(भय को भुलाना
भी षड़यंत्र है)
भय को भूलना
जरूरी है,
संभवत:
जीवन की मजबूरी/
इस तरह
भय और भूख
के बीच
जीवन
'रोप-वे'/
दि.12-10-14
Thursday 2 October 2014
मेरा गणतंत्र— गजेंद्र पाटीदार
मैं जनतंत्र का 'जन'
तंत्र से जुदा
सुनता हूँ
गणतंत्र चार स्तंभों पर खड़ा है
मैं देखता हूँ ।
पर मुझे बताया गया है
ये चार स्तंभ हाथी के पांव जैसे है।
इन चार स्तंभों को स्वीकार करने के लिये
मुझे अंधा होना चाहिये।
े
यदि मैंने देखे
इस गणतंत्र के पैरों को
'चौपाये' की तरह
तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
बेज़ा इस्तेमाल होगा!
देश में कानून का राज है
राष्ट्र की सुरक्षा
राष्ट्रवासियों से ऊपर है!
यदि 'चौपाये' के पैरों को
मैंने कहा 'लंगड़ा'
तो इसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी
संविधान ने मुझ पर सौंपी है
यह चौपाया जिसे चलाने के चक्कर नें
'नाल' ठुकवाई गई है
ताकि चौपाये का लंगड़ापन
लील जाए 'नाल'
पर नाल है कि
पैर से उखड़ कर दूसरे पैर को
घायल कर रही है
गणतंत्र को लंगड़ाना है
मैं आश्वस्त हूँ
कि मैं इस चौपाये की खींची
गाड़ी में बैठा हूँ
ये कहीं पहुँचे
न पहुँचे
सूत्रधार
इस मर्म को जानता है
कि मंच पर चौपाये को चलाने का
तरीका यह भी है कि-
नैपथ्य की यवनिका को पीछे की तरफ
खींचा जाए
गणतंत्र आगे
चलता हुआ महसूस होगा।
01-10-14